झाँसी। कलम कला और कृपाल की धरती बुंदेलखंड को उसके हक दिलाने की मांग को लेकर उसने कुछ सालों से सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारी लोकतंत्र के महापर्व के मौके पर अचानक गायब हो गए । किसी के भी बोल पृथक बुंदेलखंड राज्य को लेकर सुनाई नहीं दे रहे हैं। ऐसे में बुंदेलखंड क्रांति दल के अध्यक्ष सत्येंद्र पाल सिंह एक मिसाल बन कर पेश हुए हैं । उन्होंने अपनी पार्टी से श्रुति अग्रवाल को लोकसभा सीट के लिए मैदान में उतार कर जनता के बीच बुंदेलखंड की आवाज को लोगों तक पहुंचाने की अनवरत प्रक्रिया जारी रखी है।
सत्येंद्र पाल सिंह के बुंदेलखंड क्रांति दल से श्रुति अग्रवाल लोकसभा प्रत्याशी हैं । प्रत्याशी के साथ सत्येंद्र पाल लोकसभा सीट के सभी गांव और शहरी इलाकों में लोगों से जन संपर्क कर समर्थन मांग रहे हैं। आज उन्होंने मऊरानीपुर क्षेत्र में व्यापक जनसंपर्क किया।
बीते रोज उन्होंने रक्स, पुनावली आदि ग्रामीण इलाकों में लोगों तक अपनी बात पहुंचाई । सत्येंद्र पाल के साथ लोकसभा प्रत्याशी श्रुति अग्रवाल पूरी शिद्दत के साथ लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रही है कि पार्टी की जीत लोकसभा में बुंदेलखंड की आवाज बनेगी।
सत्येंद्र पाल लोगों को समझा रहे हैं कि बुंदेलखंड के पिछड़ेपन को दूर करने का एकमात्र उपाय पृथक राज्य है । उनके इस प्रयास में लोगों से समर्थन और सहयोग का सिलसिला धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है।
पृथक बुंदेलखंड राज्य की मांग को लेकर सत्येंद्र पाल सिंह के अकेले मैदान में डटे रहने से राज्य की मांग का समर्थन करने वाले उन चेहरों की तलाश लोगों को है , जो पिछले कुछ दिनों से आंदोलन के लिए सड़क पर नजर आया करते थे ।
इन लोगों के गायब होने पर सवाल भी उठ रहे हैं । हालांकि ऐसे लोगों के अपने तर्क हैं और वह खुद को बुंदेलखंड का आज भी सबसे बड़ा हिमायती मानने से पीछे नहीं हटते हैं।, लेकिन चुनावी दौर में वह जनता के बीच पृथक बुंदेलखंड राज्य के लिए किसी को जिताने में समर्थन क्यों नहीं करते , यह एक बड़ा सवाल है।
बरहाल बुंदेलखंड की मांग को लेकर जिस तरह से सत्येंद्र पाल सिंह अपने पार्टी प्रत्याशी के साथ गांव गलियों में घूमकर समर्थन जुटा रहे हैं। यह समर्थन उन्हें जीत के मुहाने पर किस तरह से ले जाएगा, यह तो 23 तारीख को होने वाली मतगणना में ही पता चलेगा , लेकिन बुंदेलखंड के लिए एक मंच का नारा लगाने वाले जिस तरह से गायब हुए हैं वह आने वाले समय में जब सड़क पर नजर आएंगे, तो उन्हें इन सवालों के जवाब देना ही पड़ेंगे कि लोकतंत्र के महापर्व में वह अपनी आवाज क्यों नहीं उठाते हैं?