झाँसी- रमजान को आध्यात्मिक विकास और शारीरिक रूप से शुद्ध होने का महीना माना जाता है। इससे आप संयम और अनुशासन भी सीखते हैं। रोज़ेदार को झूठ बोलने, चुग़ली करने, गाली-गलौज करने, औरत को बुरी नज़र से देखने पर सख्त पाबंदी रहती है। पाक रमज़ान माह में फर्ज़ नमाजों का सवाब 70 गुना बढ़ जाता है। इस माह में हर नेकी पर 70 नेकी का सवाब होता। इस माह में अल्लाह के इनामों की बारिश होती है। इस महीने में शैतान को कैद कर दिया जाता है, ताकि वह अल्लाह के बंदों की इबादत में खलल न डाल सके ।
इस मुक़द्दस माह में ख़ुदावन्देआलम दरे-तौबा खोल देता है। ताकि गुनाहगारों और ख़ताकारों को पाक साफ ज़िन्दगी जीने का एक हसीन मौक़ा और मिल जाये। हमें दिल की गहराईयों में जाकर सोचना चाहिए कि क्या हम हक़ीक़त में इस मौक़े का फायदा उठा पाये हैं?
रमज़ान में दरे-तौबा खोलने का मक़सद, यह हरगिज़ नहीं है कि हम बाक़ी ग्यारह महीने अपने अज़ीज़ों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के साथ आलमे-इंसानियत और इस दुनिया को तकलीफ पहुंचाते रहे। सिर्फ एक माह इबादत और तौबा कर जन्नत पाने के तमन्नाई हो जायें।
दरे-तौबा खोलने का मक़सद यह है कि जो ग़लती जाने-अनजाने में हमसे एक बार हो गई है, तौबा करने के बाद दोबारा न हो।
जुमातुल विदा का शाब्दिक अर्थ: “छूटने या छोड़कर जाने वाला जुमे का दिन” है। मुस्लिम पवित्र महीने रमज़ान के अंतिम जुमे के दिन को कहते हैं। यूँ तो रमज़ान का पूरा महीना रोज़ों के कारण अपना महत्व रखता है और जुमे के दिन का विशेष रूप से दोपहर के समय नमाज़ के कारण अपना महत्व है, चूँकि सप्ताह का यह दिन इस पवित्र महीने के अन्त में आ रहा होता है, इसलिए लोग इसे अति-महत्वपूर्ण मानते हैं।
रमज़ान के आख़िरी जुमे के मौक़े पर मस्जिदों में दोपहर को जुमातुल विदा की नमाज़ अदा की जाती है। इस विशेष नमाज़ से पहले मस्जिदों के पेश इमाम जुमातुल-विदा का ख़ुत़्बा पढ़ते हैं और नमाज़ के बाद अमन और ख़ुशहाली की दुआएँ माँगी जाती हैं। भारत में अधिकतर दरगाहों से जुड़ी कई एक मस्जिदें हैं, इसलिए लोग वहाँ पर भी नमाज़ पढ़ते हैं।
ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर:मुसलमान रमज़ान उल-मुबारक के महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का त्योहार मनाते हैं जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यकुम (एक) शव्वाल-अल-मुकर्रम को मनाया जाता है। शव्वाल-अल-मुकर्रम — इसलामी कैलंडर के दसवें महीना है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। । पहला ईद उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद ने सन 624ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था।
इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरकत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है।[ईद के दिन मस्जिद में सुबह की प्रार्थना से पहले, हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर पर आटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। नमाज़ से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है।
ईद उल-फ़ित्र के दिन ही आपसी झगड़ों, मनमुटावों — ख़ासकर घरेलू झगड़ों — को निबटा कर आपस में गले मिला जाता है।
सोचें, क्या हम “ रमज़ान/ईद मुबारक “कहने के हक़दार हैं?
अपने कलमागो भाई – बहनों से हमारी दस्तबस्ता गुज़ारिश है,” पहले ईमानदारी से रोज़े रखें, इबादत करें। ज़रूरतमन्दों, ग़रीबों की मदद करें। उन्हें रोज़ा अफ्तार करायें न कि सियासतदानों और रसूख़दारों को। अपनी सभी दीनी और दुनियावी ज़िम्मेदारियों को पूरा करें। रोज़े का बहाना लेकर उनमें कोताही न बरतें। फिर गुनाहों की दिल से तौबा करें। मुस्तक़बिल में इन गुनाहों और ग़लतियों को न दोहरायें।
“तब कहें-रमज़ान/ईद मुबारक”
इससे न सिर्फ आपका भला होगा बल्कि आपके ख़ानदान, मोहल्ले, शहर, सूबे और मुल्क के साथ दुनिया का भी भला हो सकेगा। यह ज़मीन हक़ीक़त में अमन, इंसानियत, भाई चारगी और मोहब्बत का गहवारा बन जायेगी। ऐसा करने की मुसलमानों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। क्योंकि इस्लाम मोहब्बत, भाईचारगी, बराबरी, मजलूमों की हिमायत और जालिमों से नफ़रत का हामी है।
इस लिए “जिहाद” के नाम पर जो लोग बेकुसूरो का खून बहा रहे हैं और अपने आप को मुसलमान कह रहे हैं, हमें हर स्तर पर इनका सशक्त विरोध और बहिष्कार करना होगा। ताकि इस्लाम बदनाम न हो।
आईये आज से ही शुरूआत करते हैं फिर कहेंग़े, रमज़ान/ईद तहेदिल से मुबारक!
तहेदिल से मुबारक – मुबारक मुबारक!
अलविदा जुमा मबरूक!!
ईद मुबारक!!!००००००!
-सैय्यद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिंतक
निवास-“काशाना-ए-हैदर”
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