मुहर्रम (ग़मगीन पर्व) पर विशेश
हमारे नबी रसूले ख़ुदा मोहम्मद मुस्तफा सल्लाहोअलैहेवसल्लम, चारों खुलाफा ए राशेदीन, सभी इमामों और हमारे बुज़ुर्गों और किसी राजनेता, शासनाध्यक्ष आदि ने आज तक इस्लामी नए साल की मुबारकबाद क्यों नहीं दी? कभी सोचिये?
दरअसल इस्लामी नया साल रसूले खुदा की ‘हिजरत’ से शुरू होता है। यानी हमारे नबी सल्लल्लाहोअलैहेवसल्लम को इतना परेशान किया गया कि वो अपना घर बार और शहर छोड़कर दूसरे शहर हिजरत करने पर मजबूर हो गए। और उन्होंने मक्का शहर से मदीना शहर में हिज़रत की थी। इस तरह ‘हिजरत’ से ‘हिजरी’ बना और इस्लामी नए साल ‘हिजरी’ की शुरूआत हुई।
अब आप बताएं क़ि रसूले ख़ुदा का परेशान होकर घर बार छोड़ना मुबारक बाद का मौक़ा कब से होगया ?
उसके बाद सन् 61 हिजरी में रसूले खुदा के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों की कर्बला में दर्दनाक शहादत ने मोहर्रम को और ग़मगीन बना दिया।
भाई, दूसरों के नए साल खुशीयों और हर्षोउल्लास के साथ शुरू होते हैं । जबकि इस्लामी नया साल रसूले खुदा और उनकी आल और अहबाब की मुश्किल से शुरू होता है।
हाँ, पिछले कुछ सालों से अंग्रेजों की नक़ल कर यह सिलसिला कुछ लोंगो ने शुरू किया है, जो गलत है।
ऐसे में जरूरत है हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर ग़ौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करनेकी। क्योंकि जिबरील-ए-अमीन फरिश्ते ने इमाम हुसैन की शहादत की सूचना जब रसूले ख़ुदा कि दी तो वो भी रोये थे।
क्या किसी मुसलमान में हिम्मत है कि अपने प्यारे नबी से कह सकें, या रसूलल्लाह आपको मुबारक हो आप को परेशान कर घर बार छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। फिर भी आपको इस्लामी नया साल मुबारक।
” या रसूलल्लाह, आपका प्यार नवासा शहीद कर दिया गया। उसके भाई, बेटों, भतीजो भांजो और दोस्तों को नहीं बख्शा गया। उसका छ: माह का बेटा भी मारा गया। आपका घर लूट लिया गया। लेकिन इस्लाम बच गया इसलिए आपको इस्लामी नया मुबारक हो।”
किसी की परेशानी पर खुश होना और मुबारक बाद देना, इंसानियत के ख़िलाफ भी है। यही वजह किसी ने इस्लामी नए साल की मुबारकबाद कभी नहीं दी। किसी की परेशानी और ग़म पर मुबारक बाद देना कहां की इंसानियत है?
सोचिऐ, फिर खूब कहिये इस्लामी नया साल मुबारक। वरना यह अंग्रेज़ों और दूसरों की नक़ल से बाज़ आईये। खुद भी गुमराह होने से बचिए और दूसरों को भी बचाईये। मेहरबानी होगी।
मोहर्रम एक एहतिजाज (सत्याग्रह) है, ज़ुल्म, अत्याचार, असत्य, अहंकार, शोषण, अन्याय, मानवीय और धार्मिक मूल्यों के अवमूल्यन के ख़िलाफ। समझिये इसे।
इमाम हुसैन फरमाते हैं “ज़िल्लत की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है।”
मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये दिये सर्वश्रेष्ठ त्याग और बलिदान के जनक हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों को हम हिन्दुस्तानियों के हज़ारों सलाम।
सादर हार्दिक अश्रुपूर्ण श्रृध्दांजलि।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिंतक – झांसी।