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जय जय श्रीराम जय हनुमान

*आवत एहि सर अति कठिनाई*—जी हाँ परमार्थ-पथ अतिशय कुश-कंटक है, कदम-कदम पर विभिन्न प्रकार के संकटासुर मुँह फैलाए खड़े रहते हैं, संकटों के विशाल पर्वत, सरिताएँ और नालों को पार करना पड़ता है, कोई भौतिक निधि/बल काम नहीं आता है, हाँ यदि करों में ईश्वरीय विवेक का डंडा है तो कुछ भी असम्भव नहीं है l
सीताजी की खोज में हनुमानजी के मार्ग में सुरसा, निसिचरि जैसे अवरोधक आए, उन्होंने सुरसा को प्रणाम कर और निसिचरी को परलोक भेजकर, अवरोध दूर किये ही थे, कि लंकिनी—*जानेहि नहीं मरम सठ मोरा मोर आहार जहाँ लगि चोरा*—कहते हुए अवरोधक बन गई, जो उसके लिये स्वाभाविक भी था, महाचोर की पहरेदारी पर नियुक्त जो थी, फिर—*चोरों को सारे नजर आते हैं चोर l* सो तत्क्षण उसने हनुमानजी को चोर की उपाधि से अलंकृत कर दिया l केशरी नन्दन ने विचार किया कि यदि इससे अभी भिड़ता हूँ तो समय नष्ट होगा, यमलोक भेजना भी अनुचित है, क्योंकि लंकिनी अपने स्वामी की आज्ञा-पालन कर स्व-धर्म निभा रही है, परिणाम स्वरूप कृपा की पात्रा है l सो देवीजी को चोर और चोरी का मर्मबोध कराने के लिए उन्होंने—*मुठिका एक महाकपि हनी रुधिर बमत धरनी डनमनी*—लंकिनी मूर्छित होकर, मुख से रक्त वमन करते हुए, धरा पर गिर गई l* किन्तु जब मूर्छा टूटी तो उसकी दिशा और दशा दोनों ही बदल गयी, चोर की उपाधि देने वाली—*नर कपि भालु आहार हमारा*—सिद्धांत की पालक लंकिनी को अपने विस्मृत बातें स्मरित होने लगी, हाथ जोडकर वही कहने लगी—
विकल होसि तैं कपि के मारे l
तब जानेसु निसिचर संघारे ll
उसे अपने महाचोर स्वामी के शीश पर तांडव करता हुआ काल और सामने खड़ा हुआ चोर रामदूत दिखाई देने लगा l उसे संतत्व के प्रभावशाली मुक्के की महिमा का ज्ञान हो गया, मलिन रक्त निकल जाने के कारण वह विरक्त हो गयी, आगन्तुक महाकाल की गुरु बनकर अपने जीवन के अनमोल अनुभवों को प्रकाशित करते हुए सत्संग की महिमा का गान करने लगी—
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरहिं तुला एक अंग l
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ll
वही लंकिनी हनुमानजी को आशीर्वाद प्रदान करते हुए, लंका में प्रवेश करने के गुरु-मन्त्र देने लगी—
प्रविसि नगर कीजै सब काजा l
हृदयँ राखि कौशलपुर राजा ll
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई l
गोपद सिन्धु अनल सितलाई ll
गरुण सुमेरु रेनु सम ताही l
राम कृपा करि चितवा जाही ll
सत्य यह है कि आत्म-कल्याण की कामना करने वाले मनुष्य को लंकिनी के द्वारा हनुमानजी को प्रदत्त इस गुरु-ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए, संसार रूपी मायानगरी (लंका) में रहकर भी जीवन को कृतकृत्य करने का यही मूलमन्त्र है l

 

 


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