झाँसी। आज सुबह शिया ईदगाह नईबस्ती में ईद की नमाज़ हुज्जत उल इस्लाम मौलाना सैयद शाने हैदर ज़ैदी ने पढ़ाई। उन्होंने नमाज़ियों से सबसे पहले सवाल पूछा कि,”सोचें, क्या हम “ईद – मुबारक“ कहने के हक़दार हैं? “माहे रमज़ान” गुज़र गया है। दिल चाहता है कि सोचें,क्या हम “ ईद – मुबारक “ कहने के हक़दार हैं?
सोचें, क्या हम “रमज़ान मुबारक“ कहने के हक़दार हैं?हमनें सभी मज़हबी फराइज़ अंजाम दिये?”
इस पवित्र महीने में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने अपनी पसंदीदा किताब कुरआने पाक को अपने प्यारे पैगम्बर हज़रत मुहम्मद सलल्लाहो अलैहेवसल्लम पर नाज़िल फरमाया। इस माह में फिरदौस की ख़ुश्बू ज़मीन को महकाती है।इस माहे मुबारक में अल्लाह अपने बंदो को बेइंतिहा न्यामतों से नवाज़ता है।
अल्लाह ने अपने बंदों पर पाँच चीजें फर्ज़ कीं, उन्हें “उसूले दीन” कहा और वो हैं, अव्वल – तौहीद, दूसरे – अद्ल, तीसरे – नबूवत, चौथे – इमामत और पांचवें- क़यामत। इसी तरह “फुरूऐ दीन” छ: हैं और इस तरह हैं, अव्वल – नमाज़, दूसरे- रोज़ा, तीसरे-हज, चौथे- ज़कात, पांचवें –खुम्स, छठवें – जिहाद। इन्हें इस्लाम के ख़ास सुतून (स्तंभ) कहते हैं।
रोज़े का मक़सद सिर्फ भूखे-प्यासे रहना ही नही है, बल्कि अल्लाह की इबादत करके उसे राज़ी करना है। रोज़ा पूरे शरीर का होता है। रोज़े की हालत में न कुछ गलत बात मुँह से निकाली जाए और न ही किसी के बारे में कोई चुगली की जाए। ज़ुबान से सिर्फ अल्लाह का ज़िक्र ही किया जाए, जिससे रोज़ा अपने सही मकसद तक पहुँच सके।
रमज़ान में दरे-तौबा खोलने का मक़सद, यह हरगिज़ नहीं है कि हम बाक़ी ग्यारह महीने अपने अज़ीज़ों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के साथ आलमे-इंसानियत और इस दुनिया को तकलीफ पहुंचाते रहे। सिर्फ एक माह इबादत और तौबा कर जन्नत पाने के तमन्नाई हो जायें।
दरे-तौबा खोलने का मक़सद यह है कि जो ग़लती जाने-अनजाने में हमसे एक बार हो गई है, तौबा करने के बाद दोबारा न हो। रमज़ान में भी नेकियों पर बहार आई होती है। जो शख्स आम दिनों में इबादतों से दूर होता है, वह भी रमज़ान में इबादतगुज़ार बन जाता है। यह सब्र का महीना है और सब्र का बदला जन्नत है।
रसूले खुदा हज़रत मोहम्मद मुस्तफा ने फरमाया है कि रोज़ा हमें ज़ब्ते नफ्स (खुद पर काबू रखने) की तरबियत देता है। हममें परहेज़गारी पैदा करता है। लेकिन अब जैसे ही माहे रमज़ान आने वाला होता है, लोगों के जहन में तरह-तरह के चटपटे और मजेदार खाने का तसव्वुर आ जाता है, जो गलत है। यह महीना समाज के गरीब और ज़रूरतमंद बंदों के साथ हमदर्दी का महीना है। इस महीने में रोज़ादार को इफ्तार कराने वाले के गुनाह माफ हो जाते हैं। रसूले खुदा मोहम्मद मुस्तफा से आपके किसी सहाबी (साथी) ने पूछा- अगर हममें से किसी के पास इतनी गुंजाइश न हो कि हम इफ्तार करा सकें। तो आपने फरमाया कि एक खजूर या पानी से ही इफ्तार करा दिया जाए।
ईमानदारी के साथ हम अपना जायज़ा लें कि क्या वाकई हम लोग मोहताजों और नादार लोगों की वैसी ही मदद करते हैं जैसी करनी चाहिए? सिर्फ सदक़ा-ए-फित्र देकर हम यह समझते हैं कि हमने अपना हक़ अदा कर दिया है।
जब अल्लाह की राह में देने की बात आती है तो हमारी जेबों से सिर्फ चंद रुपए निकलते हैं, लेकिन जब हम अपनी खरीदारी के लिए बाज़ार जाते हैं वहाँ हज़ारों रुपया खर्च कर देते हैं। कोई ज़रूरतमंद अगर हमारे पास आता है तो उस वक़्त हमको अपनी कई ज़रूरतें याद आ जाती हैं। यह लेना है, वह लेना है, घर में इस चीज़ की कमी है। बस हमारी ख्वाहिशें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं।
खासतौर से हमारी बहनें ईद की शॉपिंग का जायज़ा लें कि वह अपने लिबास पर कितना कुछ खर्च करती हैं। ज़रा रुक कर सोचें हममें से कई ज़रूरतमंद लोग दुनियां में मौजूद हैं जिनके पास तन ढँकने के लिए कपड़ा मौजूद नहीं।
अगर इस महीने में हम अपनी ज़रूरतों और ख्वाहिशों को कुछ कम कर लें और यही रकम ज़रूरतमंदों को दें तो यह हमारे लिए बेहत अज्र और सिले का बाइस होगा। क्योंकि इस महीने में की गई एक नेकी का अज्र कई गुना बढ़ाकर अल्लाह की तरफ से अता होता है।
इस्लाम के पवित्र ग्रंथ क़ुराने पाक के मुताबिक हरेक समर्पित मुसलमान को साल (चन्द्र वर्ष) में अपनी आमदनी का 2.5 % हिस्सा ग़रीबों को दान में देना चाहिए। इस दान को ज़कात कहते हैं।
समाजसेवी सैयद शहनशाह हैदर आब्दी ने इस मौक़े पर कहा,”ईद के दिन मस्जिद में सुबह की प्रार्थना से पहले, हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर परआटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। नमाज़ से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है।
उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
सोचें, क्या हम “ रमज़ान और.ईद मुबारक “ कहने के हक़दार हैं?
“कितनी जल्दी ये अरमान गुज़र
जाता है, प्यास बुझती नहीं इफ्तार गुज़र जाता है।
हम गुनाहगारों की मग़फिरत कर मेरे अल्लाह, इबादत होती नहीं और रमज़ान गुज़र जाता है।“
“तब कहें-रमज़ान और ईद मुबारक”
इससे न सिर्फ आपका भला होगा बल्कि आपके ख़ानदान, मोहल्ले, शहर, सूबे और मुल्क के साथ दुनिया का भी भला हो सकेगा। यह ज़मीन ह्क़ीक़त में अमन, इंसानियत, भाई चारगी और मोहब्बत का गहवारा बन जायेगी।
आईये आज से ही शुरूआत करते हैं फिर कहेंग़े, रमज़ान तहेदिल से मुबारक, ईद – उल – फितर तहेदिल से मुबारक – मुबारक मुबारक!”
मुकब्बिर के फ़राइज़ अलहाज इंजिनियर जनाब सैयद काज़िम रज़ा ने अदा किये।
अंत में सभी धर्मगुरुओं ने मिलकर शांति पाठ किया और सबके लिये सुख, समृध्दि, शांति और सफलता की प्रार्थना की।
नमाज़ में सर्वश्री हाजी कैप्टन सज्जाद अली, हाजी सईद मोहम्मद,शाकिर अली,सग़ीर हुसैन, ज़मीरअब्बास, सईदुज़्ज़मां, अमीर हुसैन,जावेद अली, जमशेद अली, अज़ीज़ फातिमा, नफीसा फातिमा, अनवरजहां,हिना,
फिरदौस फातिमा, सामरा, फरहा नाज़, ऐमन मरियम, हुमेरा, शीबा रिज़वी,मुमताज़ फात्मा, हयात फातिमा, कनीज़ ज़ेहरा, इरशाद फातिमा, अज़ादार फातिमा, शाहिदा बेगम, ज़ाहिदा बेगम,मुशाहिदा बेगम, मंसूबा फातिमा, क़मर हैदर, हैदर रज़ा, बाक़र अली ज़ैदी,अब्दुल ग़फूर, सग़ीर मेहदी, रईस अब्बास, ज़ाहिद हुसैन ”इंतज़ार”, वसी हैदर, रोशन अली, फीरोज़ अली,ज़ुल्फिक़ार अली, सिराज मेहदी, फैज़ अब्बास, सुखंवर अली, दानिश अली,अतालिक़ हैदर, अख़्तर हुसैन, नईमुद्दीन,मुख़्तार अली, ताज अब्बास, ज़ीशान हैदर, अली क़मर, फुर्क़ान हैदर, वसी हैदर, मज़ाहिर हुसैन, आरिफ रज़ा,इरशाद रज़ा, जाफर नवाब, अली समर, मोहम्मद रज़ा, सबाफातिमा, शाहरुख़ आब्दी, सदफ, ज़ैनुल रज़ा, राजू आब्दी आदि के साथ बडी संख्या में श्रृध्दालु उपस्थित रहे। महिलाओं ने भी बडी संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
आभार जनाब सैयद ग़ज़नफर हुसैन आब्दी प्रबन्धक और स्वागत सैयद सरकार हैदर आबदी ने ज्ञापित किया। कार्यक्रम क्रम को सफल बनाने में हैदर, अस्करी नवाब, अतालिक़ आब्दी और उनके साथियों का सक्रिय योगदान रहा।