बाबा साहब अम्बेडकर की अहमियत या व्यक्तित्व और विरासत का अपहरण कर वोटों की राजनीति?

दलित वोटों को लेकर देश में आज घमासान मचा हुआ है। हर दल में अपने आप को दलितों का सबसे बड़ा हितैषी बताने की होड़ लगी है। कहीं दलित को राष्ट्रपति, पिछड़े को प्रधान मंत्री बनाने का दावा किया जा रहा है । तो कहीं दलितों पर अत्याचार के विरुध्द उपवास किया जा रहा है । एक दल के जवाब में दूसरा दल भी उपवास की राजनीति कर रहा है । राजनीतिक नेताओं की उपवास की राजनीति उपहास की राज नीति हो गयी है। अब तो समाजवादी पार्टी ने भी अम्बेडकर जयन्ती समारोहपूर्वक मनाने की घोषणा कर दी है।

दलित आन्दोलन कई भागों बाँट चुका है। दलित नेता दलितों के वोटों के आधार पर अपना हित साध रहे हैं। राम विलास पासवान हों, उदित राज हों, राम अठावले हों, मायावती हो या प्रकाश अम्बेडकर, सबा का यही हाल है। दलित झूठे वादों और दावों से परेशान होकर अपने हक़ के लिए सड़कों पर उतर आया है, बिना किसी नेतृत्व के सड़क पर उतर आया है। जवाब में दलित आरक्षण के विरुध्द सवर्णों का एक वर्ग भी सड़कों पर है।

मार्क्स ने कहा था कि, “इतिहास खुद को दोहराता है। पहली बार एक त्रासदी के रूप में, दूसरी बार एक तमाशे के तौर पर।” भारत के राजनीतिक दल भी इतिहास का दोहराव कर रहे हैं। पहला-एक नाटक के तौर पर, दूसरा- बेतुके तमाशे के तौर पर। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही बाबा साहब अंबेडकर पर हक़ जता रही हैं । इसलिए नहीं कि वे उनका बहुत आदर करती हैं बल्कि इसलिए कि दोनों ही दलों में प्रतीकात्मक चीजों का सहारा लेने की ज़बर्दस्त प्रवृति है।

कहते हैं कि समूहों के बीच केवल संपत्ति और पेटेंट के सवाल पर ही लड़ाई नहीं लड़ी जाती, बल्कि विरासत भी एक मुद्दा होता है। विरासत केवल अतीत पर दावेदारी भर की बात नहीं है। इसमें आने वाले कल के लिए एक आहट भी सुनी जा सकती है। जब कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां किसी राजनेता पर दावेदारी कर रही हों तो उनकी नज़र उस राजनेता के विचारों और सरोकारों पर होनी चाहिये। लेकिन यह मौजूदा भारतीय राजनीति की त्रासदी ही कही जा सकती है कि बाबा साहब अंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों को अपनाने की बजाय उन्हें अपनी पसंद के मुताबिक पेश किया जा रहा है।

दरअसल पिछले चार साल में भाजपा का बिन माँ का “विकास” अभी भी पालने (झूले) में पड़ा रो रहा है। विकास के पापा, चाचा , ताऊ, मामा, जीजा, ताई, चाची, मौसी, मामी, जीजी आदि अभी रिश्तेदार परेशान होकर बौखला गए हैं और अपने चिरपरिचित जाति और साम्प्रदायिक राजनीति पर उतर आये हैं। विज्ञापनों, प्रचार प्रसार पर कई सौ करोड़ रुपये बरबाद करने और अपनी छवि चमकाने के बजाए अगर भाजपा ने इन रुपयों को जनता के विकास के कार्यों लगाया होता तो आज उसे जाति और साम्प्रदायिक राजनीति की शरण में फिर न जाना पड़ता।

ऐसा लगता है जैसे हितों की राजनीति को बड़े गहरे तरीके से साधा जा रहा है क्योंकि बीता कल इतना क़ीमती है कि उसे आज की तारीख़ में वोटों में बदला जा सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो भा.ज.पा. और आर.एस.एस. ने आज से पहले भी बाबा साहब अंबेडकर और सरदार बल्लभ भाई पटेल को इतना ही महत्व दिया होता।

यही नहीं, मरहूम अब्दुल करीम छागला और सिकन्दर बख़्त को भी कभी याद किया होता, उनकी जयंती या पुण्यतिथि मनाई होती? मुख्तार अब्बास नक़वी और शाहनवाज़ हुसैन कभी भाजपा के अध्यक्ष पद के दावेदार होते? ऐसा इस लिये नहीं हुआ कि यह लोग अपनी तमाम सलाहियतों के बावजूद वोट नहीं दिला सकते।

आज जब कोई समूह महात्मा गांधी या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या जवाहर लाल नेहरू या बाबा साहब अंबेडकर की विरासत पर दावा करता है तो उनका दावा विचारों पर नहीं होता। ऐसे संगठन का रवैया कुछ ऐसा होता है, मानो वे किसी जायदाद पर हक़ जता रहा हो। विरासत एक प्रतीकात्मक संपत्ति की तरह ही है। बाबा साहब अंबेडकर पर आज दावा करने का ये मतलब है कि एक समुदाय के तौर पर दलितों पर दावा करना। यह संविधान की विरासत पर भी दावा करने जैसा है। यह इंसाफ़़ के इतिहास पर दावा करना है। वे पार्टियां जिनके पास उपलब्धियों के नाम पर बताने के लिए अब कुछ नहीं है, वे किसी के विचार को तो हथिया ही सकती हैं। यह एक तरह की बौद्धिक किस्म की चोरी कही जा सकती है मानो किसी और की खूबियों को कोई और अगवा करने पर आमादा हो।

दो अब बौद्धिक रूप से कंगाल पार्टियों के लिए बाबा साहब अंबेडकर, बैंक में रखे पैसे की तरह हैं। लेकिन निराश होने की भी वजहे हैं। बाबा साहब अंबेडकर का जुड़ाव सामान्य बुद्धिजीवी तबके से रहा है। उन्हें बीजेपी या कांग्रेस के ब्रांड की तरह पेश करने से उनकी विरासत को कमज़ोर कर देने का ख़तरा है। इस कोशिश के पीछे अगड़ी जातियों के कुछ समूह हैं। इतिहास की अपने मुताबिक़ व्याख्या करने की आदत अब हर पार्टी में देखी जा सकती है। हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। दोनों ही राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं। दोनों ही जनता से खुद को जोड़ना चाहते हैं। इस लिहाज से बाबा साहब अंबेडकर एक प्रतीकात्मक शक्ति के रूप में दोनों की ही गारंटी देते हैं। उनका जीवन आधुनिकता, बराबरी और न्याय का उदाहरण है।

कांग्रेस, बाबा साहब अंबेडकर को अपने नेता के तौर पर पेश कर रही है। मोहन भागवत उन्हें शाखा के एक आकांक्षी सदस्य के रूप में पेश कर रहे हैं। बाबा साहब अंबेडकर को हथियाने का मतलब उनकी विरासत को कमज़ोर करना है। इस कोशिश में उनकी राजनीतिक अहमियत को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। बाबा साहब हिंदु सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी थे। यही कारण है कि उन्होंने उसे त्याग कर बौध्द धर्म को स्वीकार किया। क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, उसका परिवार और कांग्रेस हिंदु समाज में वर्ण व्यवस्था को नकारने को तैय्यार होंगे?
बाबा साहब अंबेडकर को अपनाने के तौर तरीके बेहद दिलचस्प हैं। आरएसएस के लिए बाबा साहब अंबेडकर एक राष्ट्रवादी हैं। कांग्रेस भी अपनी पारंपरिक रस्म अदायगी कर रही है।अंबेडकर दिवस के मौके पर सक्रिय होने वाले अनुसूचित जाति विभाग के नौकरशाहों की जगह अब राजनेता ले रहे हैं। पोस्टर छापना, पर्ची बांटना, इतिहास फिर से लिखना सभी पार्टियों को अपनी सुविधा के हिसाब से पसंद आता है। बाबा साहब अंबेडकर जो गांव और जाति के सवाल पर बेहद मुखर हुआ करते थे, अब उन्हें अधिक स्वीकार्य चेहरे के तौर पर पेश किए जाने की कोशिश हो रही है।

एक व्यक्ति के तौर पर बाबा साहब अंबेडकर की नई छवि दिलचस्प हो सकती है, लेकिन राजनीतिक तौर पर उतनी हो खोखली भी होगी। उनके क्रांतिकारी विचारों के नापसंद किए जा सकने वाले हिस्सों को कांट-छांट कर पसंद किए जाने लायक बनाया जा रहा है। यह पूरी क़वायद उनकी विरासत को हथियाने की कोशिश भर नहीं है, बल्कि उसे धोखे से बर्बाद करना भी है।

ये आश्चर्यजनक ही है कि न तो कभी कांग्रेस ने और न ही भा.ज.पा. ने बाबा साहब अंबेडकर की परवाह की। यह उनका दलित आंदोलन ही था कि वे राष्ट्रीय फलक पर एक क़द्दावर शख़्सियत के तौर पर उभरे। आज बाबा साहब अंबेडकर को याद किए जाने का प्रतीकात्मक महत्व भी है। उनका नाम महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की क़तार में लिया जाता था। बाबा साहब अंबेडकर पर दावा जताने का मतलब होता है कि उस आदमी के अधूरे कामों पर दावा करना। लेकिन यहां काम पूरा करने के लिये नहीं सिर्फ नाम पर दावा हो रहा है।

दुख की बात ये है कि दोनों ही पार्टियों ने बाबा साहब अंबेडकर को अनाथ छोड़ दिया था। महात्मा गांधी के साथ उनके संबंधों की वजह से बाबा साहब अंबेडकर को लेकर कांग्रेस हमेशा से दुविधा की स्थिति में रही है। हिंदु धर्म में वर्ण व्यवस्था को लेकर गांधी जी से अम्बेडकर जी के मतभेद थे।

भारतीय जनता पार्टी जानती है कि बाबा साहब अंबेडकर, श्री केशव बलिराम हेडगेवार जी, श्री माधव सदाशिव गोलवलकर जी और श्री विनायक दामोदर सावरकर जी से कोसों दूर हैं।इसके बावजूद भी दोनों पार्टियां मौजूदा हालात में ये समझती हैं कि बाबा साहब अंबेडकर का मतलब बराबरी और इंसाफ़ का सपना है और हरिजन के एक मुश्त वोट हैं।

जो हम देख पा रहे हैं कि पहले कांग्रेस और बीजेपी ने सरदार बल्लभ भाई पटेल की विरासत पर लड़ाई लड़ी और उनकी शख़्सियत को तार-तार कर दिया। बाबा साहब अंबेडकर दूसरे प्रतीक पुरुष हैं जिनकों लेकर दोनों पार्टियां संघर्ष कर रही हैं। दोनों एक दूसरे पर लापरवाही बरतने के आरोप लगा रही हैं।

इसके साथ ही दोनों ही पार्टियां चुनावी राजनीति के दोहरेपन को भी दिखा रही हैं। जातीय समीकरणों की बाज़ीगरी दिखलाने वाले राजनीतिक दल उस आदमी की विरासत पर बेक़रारी के साथ दावा कर रहे हैं जिसने जाति के सर्वनाश की बात कही थी।

क्या संघ के गले का फंदा बन जाएंगे आंबेडकर?

एक अम्बेडकरवादी विचारक श्री दिलीप मंडल के अनुसार ब्राह्मणवाद और आंबेडकरवाद भारतीय चिंतन परंपरा के दो अलग अलग ध्रुव हैं। इनमें से एक घटेगा, तो दूसरा बढ़ेगा। एक मिटेगा, तो दूसरा बचेगा।आंबेडकर की नज़र में आरएसएस जिन लोगों का संगठन है, वे बीमार हैं और उनकी बीमारी बाकी लोगों के लिए खतरा है। राष्ट्र निर्माता के रूप में बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर की विधिवत स्थापना का कार्य 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने की राजपत्र में की गई घोषणा के साथ संपन्न हुआ। संविधान दिवस संबंधी भारत सरकार के गजट में सिर्फ एक ही शख्सियत का नाम है और वह नाम स्वाभाविक रूप से बाबा साहब अम्बेडकर का है। बाबा साहब को अपनाने की बीजेपी और संघ की कोशिशों का भी यह चरम रूप है। लेकिन क्या इस तरह के अगरबत्तीवाद के ज़रिए बाबा साहब को कोई संगठन आत्मसात कर सकता है? हमें शक है। इस शक का कारण हमें अम्बेडकरी विचारों और उनके साहित्य में नज़र आता है। इस बात की पुष्टि के लिए हम बाबा साहब की सिर्फ एक किताब “एनिहिलेशन ऑफ कास्ट” का संदर्भ ले रहे हैं। याद रहे कि यह सिर्फ एक किताब है। पूरा आंबेडकरी साहित्य ऐसे लेखन से भरा पड़ा है, जो संघ को लगातार असहज बनाएगा। “एनिहिलेशन ऑफ कास्ट” पहली बार 1936 में छपी थी। दरअसल यह एक भाषण है। जिसे बाबा साहब ने लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के 1936 के सालाना अधिवेशन के लिए तैयार किया था।

लेकिन इस लिखे भाषण को पढ़कर जात-पात तोड़क मंडल ने पहले तो कई आपत्तियां जताईं और फिर कार्यक्रम ही रद्द कर दिया। इस भाषण को ही बाद में “एनिहिलेशन ऑफ कास्ट” नाम से छापा गया।

दूसरे संस्करण की भूमिका में बाबा साहब इस किताब का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि –“अगर मैं हिंदुओं का यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा।”

जाहिर है कि बाबा साहब के लिए यह किताब एक डॉक्टर और मरीज़ यानी हिंदुओं के बीच का संवाद है। इसमें ध्यान रखने की बात है कि जो मरीज़ है, यानी जो भारत का हिंदू है, उसे या तो मालूम ही नहीं है कि वह बीमार है, या फिर वह स्वस्थ होने का नाटक कर रहा है और किसी भी हालत में वह यह मानने को तैयार नहीं है कि वह बीमार है। बाबा साहब की चिंता यह है कि वह बीमार आदमी दूसरे लोगों के लिए खतरा बना हुआ है। संघ उसी बीमार आदमी का प्रतिनिधि संगठन होने का दावा करता है। वैसे यह बीमार आदमी कहीं भी हो सकता है।

कांग्रेस से लेकर वामपंथी कम्युनिस्ट और दक्षिणपंथी संघी तक उसके कई रूप हो सकते हैं। लेकिन वह जहां भी है, बीमार है और बाकियों के लिए दुख का कारण है। बीमार न होने का बहाना करता हुआ हिंदू कहता है कि वह जात-पात नहीं मानता। लेकिन बाबा साहब की नजर में ऐसा कहना नाकाफी है। वे इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं कि भारत में कभी क्रांति क्यों नहीं हुई। वे बताते हैं कि कोई भी आदमी आर्थिक बराबरी लाने की क्रांति में तब तक शामिल नहीं होगा, जब तक उसे यकीन न हो जाए कि क्रांति के बाद उसके साथ बराबरी का व्यवहार और जाति के आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं होगा। इस भेदभाव के रहते भारत के ग़रीब कभी एकजुट नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि- आप चाहें जो भी करें,जिस भी दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करें, जातिवाद का दैत्य आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा। इस राक्षस को मारे बिना आप राजनीतिक या आर्थिक सुधार नहीं करते। डॉक्टर आंबेडकर की यह पहली दवा है।

क्या संघ इस कड़वी दवा को पीने के लिए तैयार है? जातिवाद के खात्मे की दिशा में संघ ने पहला कदम नहीं बढ़ाया है। क्या वह आगे ऐसा करेगा? मुझे संदेह है। डॉ. आंबेडकर के मुताबिक जाति ने भारतीयों की आर्थिक क्षमता को कुंद किया है। बाबा साहब आगे लिखते हैं कि हिंदू समाज जैसी कोई चीज है ही नहीं. हिंदू मतलब दरअसल जातियों का जमावड़ा है। इसके बाद वे एक बेहद गंभीर बात बोलते हैं कि एक जाति को दूसरी जाति से जुड़ाव का संबंध तभी महसूस होता है। जब हिंदू-मुसलमान दंगे हों, संघ के मुस्लिम विरोध के सूत्र बाबा साहब की इस बात में छिपे हैं। वह जाति को बनाए रखते हुए हिंदुओं को एकजुट देखना चाहता है, इसलिए हमेशा मुसलमानों का विरोध करता रहता है।दंगों को छोड़कर बाकी समय में हिंदू अपनी जाति के साथ खाता है और जाति में ही शादी करता है। वे बताते हैं कि कोई भी आदमी आर्थिक बराबरी लाने की क्रांति में तब तक शामिल नहीं होगा, जब तक उसे यक़ीन न हो जाए कि क्रांति के बाद उसके साथ बराबरी का व्यवहार और जाति के आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं होगा।

डॉ. आंबेडकर बीमार हिंदू की नब्ज पर हाथ रखकर कहते हैं कि आदर्श हिंदू उस चूहे की तरह है,जो अपने बिल में ही रहता है और दूसरों के संपर्क में आने से इनकार करता हैं। इस किताब में बाबा साहब साफ शब्दों में कहते हैं कि कि हिंदू एक राष्ट्र नहीं हो सकते। क्या संघ के लिए ऐसे बाबा साहब आंबेडकर को आत्मसात कर पाना मुमकिन होगा ? मुझे संदेह है।

बाबा साहब यह भी कहते हैं कि ब्राह्मण अपने अंदर भी जातिवाद पर सख्ती से अमल करते हैं। वे महाराष्ट्र के गोलक ब्राह्मण, देवरूखा ब्राह्मण, चितपावन ब्राह्मण और भी तरह के ब्राह्मणों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उनमें असामाजिक भावना उतनी ही है,जितनी कि ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों के बीच है। वे मरीज की पड़ताल करके बताते हैं कि जातियां एक दूसरे से संघर्षरत समूह हैं, जो सिर्फ अपने लिए और अपने स्वार्थ के लिए जीती हैं। वे यह भी बताते है कि जातियों ने अपने पुराने झगड़े अब तक नहीं भूलाए हैं। गैर ब्राह्मण इस बात को याद रखता है कि किस तरह ब्राह्मणों के पूर्वजों ने शिवाजी का अपमान किया था। आज का कायस्थ यह नहीं भूलता कि आज के ब्राह्मणों के पूर्वजों ने उनके पूर्वजों को किस तरह नीचा दिखाया था।

संघ के संगठन शुद्धि का अभियान चला रहे हैं। बाबा साहब का मानना था कि हिंदुओं के लिए यह करना संभव नहीं है। जाति और शुद्धिकरण अभियान साथ साथ नहीं चल सकते। इसका कारण वे यह मानते हैं कि शुद्धि के बाद बाहर से आए व्यक्ति को किस जाति में रखा जाएगा, इसका जवाब किसी हिंदू के पास नहीं है। जाति में होने के लिए जाति में पैदा होना जरूरी है। यह क्लब नहीं है कि कोई भी सदस्य बन जाए। वे स्पष्ट कहते हैं कि धर्म परिवर्तन करके हिंदू बनना संभव नहीं है क्योंकि ऐसे लोगों के लिए हिंदू धर्म में कोई जगह नहीं है।

क्या भारत का बीमार यानी हिंदू और कथित रूप से उनका संगठन आरएसएस, बाबा साहब की बात मानकर शुद्धिकरण की बेतुका कोशिशों को रोक देगा? मुझे संदेह है.
हिंदू के नाम पर राजीनीति करने वाले संगठन यह कहते नहीं थकते कि हिंदू उदार होते हैं। बाबा साहब इस पाखंड को नहीं मानते। उनकी राय में, मौका मिलने पर वे बेहद अनुदार हो सकते हैं और अगर वे किसी खास मौके पर उदार नजर आते हैं, तो इसकी वजह यह होती है कि या तो वे इतने कमजोर होते हैं कि विरोध नहीं कर सकते या फिर वे विरोध करने की जरूरत महसूस नहीं करते।

बाबा साहेब इस किताब में गैर हिंदुओं के जातिवाद की भी चर्चा करते हैं। लेकिन इसे वे हिंदुओं के जातिवाद से अलग मानते हैं। वे लिखते हैं कि गैर हिंदुओं के जातिवाद को धार्मिक मान्यता नहीं है। लेकिन हिंदुओं के जातिवाद को धार्मिक मान्यता है। गैर हिंदुओं का जातिवाद एक सामाजिक व्यवहार है, कोई पवित्र विचार नहीं है। उन्होंने जाति को पैदा नहीं किया। अगर हिंदू अपनी जाति को छोड़ने की कोशिश करेगा, तो उनका धर्म उसे ऐसा करने नहीं देगा। वे हिंदुओं से कहते हैं कि इस भ्रम में न रहें कि दूसरे धर्मों में भी जातिवाद है। वे हिंदू श्रेष्ठता के राधाकृष्णन के तर्क को खारिज करते हुए कहते हैं कि हिंदू धर्म बेशक टिका रहा, लेकिन उसका जीवन लगातार हारने की कहानी है। वे कहते हैं कि अगर आप जाति के बुनियाद पर कुछ भी खड़ा करने की कोशिश करेंगे, तो उसमें दरार आना तय है।

अपने न दिए गए भाषण के आखिरी हिस्से में बाबा साहब बताते हैं कि हिंदू व्यक्ति जाति को इसलिए नहीं मानता कि वह अमानवीय है या उसका दिमाग खराब है। वह जाति को इसलिए मानता है कि वह बेहद धार्मिक है। जाति को मान कर वे गलती नहीं कर रहे हैं। उनके धर्म ने उन्हें यही सिखाया है। उनका धर्म गलत है, जहां से जाति का विचार आता है। इसलिए अगर कोई हिंदू जाति से लड़ना चाहता है तो उसे अपने धार्मिक ग्रंथों से टकराना होगा।
बाबा साहब भारत के मरीज को उपचार बताते हैं कि शास्त्रों और वेदों की सत्ता को नष्ट करो। यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि शास्त्रों का मतलब वह नहीं है, जो लोग समझ रहे हैं। दरअसल शास्त्रों का वही मतलब है जो लोग समझ रहे हैं और जिस पर वे अमल कर रहे हैं।

क्या संघ हिंदू धर्म शास्त्रों और वेदों को नष्ट करने के लिए तैयार है? मुझे शक है.
इस भाषण में वे पहली बार बताते हैं कि वे हिंदू बने रहना नहीं चाहते।

संघ को बाबा साहेब को अपनाने का पाखंड करते हुए, यह सब ध्यान में रखना होगा। क्या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ बाबा साहेब को अपना सकता है? बेशक, लेकिन ऐसा करने के बाद फिर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं रह जाएगा जो हिंदु हित की बात करता है और जो नारा लगाता है,” गर्व से कहो हम हिंदु हैं”।

इस लिये भा.ज.पा., संघ परिवार और कांग्रेस की इस सारी क़वायद से यही मालूम पड़ता है कि अंबेडकर के विचारों को अपनाने की बजाय उनका शुद्धिकरण किया जा रहा है। इसे मौजूदा भारतीय राजनीति का एक दुखद मोड़ कहा जा सकता है।

बहरहाल, बे-ईमान और झूठे सियासत दानों एवं राज दरबारी लेखकों से होशियार रह्ते हुये बाबा साहब अम्बेडकर के व्यक्तित्व और विरासत की हिफाज़त करना हर सच्चे हिन्दुस्तानी का फर्ज़ है कोशिश कीजिये उनका व्यक्तित्व और विरासत का अपहरण न हो पाये।

बाबा साहब को देशवासियों को दिल की गहराइयों से श्रृध्दांजलि ।

(सैय्यद शहनशाह हैदर आब्दी)
समाजवादी चिंतक
निवास-“काशाना-ए-हैदर”
291, लक्ष्मन गंज – झांसी (उ0प्र0)
मो.न.09415943454.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *