यूपी के कोच में हर तीसरे साल होती है अनोखी पूजा, रिपोर्ट अवनीत गुर्जर

कोंच-उरई। कोंच नहीं अपितु बुन्देलखण्ड की प्रसिद्ध बड़ी पूजा का यह आयोजन हर तीन साल में होता है। इस बड़ी पूजा यानि माँ की विदाई का आयोजन 1913 में शुरू हुआ था जब कोंच में भयंकर महामारी फैली हुई थी। हालात इतने खराब हो गए थे कि जब तक शमशान घाट पर दो शवों की अंत्येष्टि होती थी कि चार शव तब तक और आ जाते थे। कोंच के लोग इस महामारी से इतना डर गए थे कि लोगों ने अधिकाँश घर खाली कर दिये थे कुछ ने तो अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले ली तो कुछ ने तो अपने बाग बगीचों में आशियाना बना लिया था।
इस बीच दाढ़ी नाका स्थित महंत जी के बगीचे पर नीबू के पेड़ पर हुलका देवी ने एक कन्या का रूप धारण दर्शन दिये और कहा कि महामारी से डरकर मत भागो बल्कि उन्हें विदाई दो। इसके बाद शिवरानी रायकवार, गम्भीरा और गेंदारानी पर मैया की पहली सवारी आई और इस तरह यह बड़ी पूजा का आयोजन शुरू हो गया।
कुछ दिनों के बाद मैया की सवारी रामरती कुठौंदा वाली और धोबिन बऊ के ऊपर भी होने लगी। रामरती के निधन के बाद मैया की सवारी उनके दामाद गंगाराम यागिक पर होने लगी। इस बड़ी पूजा के तीन आयाम है जो पूरे करने होते है। इस बड़ी पूजा की सभी रस्में अदा की जाती हैं। माँ का सुहाग धोविन बऊ के यहां से आता है और माँ का डोला गांगराम यागिक के यहां से आता है और जब कि माँ की टिपरिया महन्त ब्रजभूषण दास के यहां से आती है।
परम्परा यह भी है कि बड़ी पूजा में सबसे पहले डोला में कन्धा महन्त जी के घर का सदस्य देता है तभी इस बड़ी पूजा की शुरुआत होती है। यह विचित्र आयोजन बड़ा ही रोमांचकारी और अदभुत है।
इस बड़ी पूजा की परम्परा पहले आषाढ़ मास में होती थी लेकिन माँ ने एक स्वप्न दिया कि सावन मास में बहनों को घर बुलाने का रिवाज है ऐसे में मैया की विदाई आषाढ़ में उचित नहीं है।
बताते हैं कि इसी के बाद में सावन का महीना गुजर जाने के बाद भादों महीना के आखिरी शनिवार को बड़ी पूजा लगने की परम्परा चलने लगी जो आज भी जारी है और पूजा के समय घर आयीं बेटियों को तब तक विदा नहीं किया जाता जब तक माँ की विदाई नहीं की जाती है। बड़ी पूजा के दौरान महिलाओं पर कुछ बंदिशें रहती हैं जिनमें महिलायें उस दिन कोई श्रृंगार नहीं कर सकती है उन्हें अपने बाल (केश) खुले रखने होते है। खास बात तो यह है कि बड़ी पूजा में महिलाएं केवल रेलवे क्रासिंग तक ही जा सकती हैं जब माँ का डोला क्रासिंग के आगे बढ़ता है तो महिलाओं को वहां से आगे जाने की सख्त मनाही है और महिलायें यहां से अपने घरों को लौट आती है। इस बड़ी पूजा का प्रारम्भ बजरिया मालवीय नगर स्थित लाला हरदौल के बड़े मंदिर से होता है।
इसके पूर्व कुछ अनुष्ठान किये जाते है सबसे पहले गंगाराम के यहां से लाला हरदौल मंदिर जाते हैं। इस बड़ी पूजा में एक बड़ा वाराहो जो बलि के लिये होते है व्यबस्था में रहते हैं यात्रा में सवसे आगे रहते हैं। माँ की यात्रा में रथ में दो बकरे जोते जाने की भी परम्परा है यह बड़ी पूजा सुबह 10 बजे से प्रारम्भ हो जाती हैं जिससे पहुँचने में तकरीवन पांच किलो मीटर में 6 या 7 घंटे करीब लग जाते हैं।
इस बड़ी पूजा में अहम बात यह है इस यात्रा मार्ग में सर्वत दूध और शराब की तीन धाराये बराबर चलती रहती हैं इन धाराओं के पीछे की मान्यता है कि बड़ी पूजा के दौरान रास्ते में जो अदृष्य शक्तियां मिलती हैं वे अपने-अपने भोजन के अनुसार उन्हें ग्रहण करती हैं।
बड़ी पूजा जब सागर चैकी तिराहे पर पहुँचती है तो यहां लाला हरदौल का एक मंदिर है जहाँ बड़ी पूजा का विश्राम होता है। यहां भी कुछ अनुष्ठान किये जाते हैं। इस लम्बी और दिन भर चलने वाली यह विदाई यात्रा का समापन पड़री नाका स्थित माँ हुलका देवी मंदिर पर होता है। मैया के रथ में चल रहे बकरों को खेतों में छोड़ दिया और वराहो की बलि दी जाती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *