नई दिल्ली 5 मार्चः एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की तैयारी शुरू हो गयी है। भारतीय राजनीति के इतिहास मे तीस साल बाद यह सातवां मौका होगा, जब विपक्ष एक जुट होने की तैयारी कर रहा है। सवाल यह है कि यदि महागठबधन बनता है, तो कौन मुखिया होगा और कैसे मैनेज किया जाएगा?
भाजपा के बढ़ते ग्राफ को रोकने के लिये बीते रोज जिस तरह से 25 साल बाद बसपा और सपा का मेल होता नजर आया, उसने केन्द्र की राजनीति मंे गठबंधन की संभावनाओ को जन्म दे दिया है। कई राजनैतिक दल के नेता मानने लगे है कि मोदी को रोकने के लिये एकजुट होना जरूरी है।
बंगाल मे सरकार पर मंडराते संकट ने ममता बनर्जी को भी बैकफुट पर ला दिया है।इस बार तेलंगाना के सीएम केसीआर ने इसे हवा दी है. तीसरा मोर्चा बनाने की नूरा-कुश्ती हिंदुस्तान की सियासत में पिछले करीब तीस सालों से चल रही है, लेकिन इस कवायद में लगे नेताओं की, ‘मैं भी प्रधानमंत्री-मैं भी प्रधानमंत्री’ वाली हसरतों ने इसे ठोस शक्ल अख्तियार करने ही नहीं दिया. इसके बावजूद देश के सामने 7वीं बार ‘तीसरा मोर्चा’ बनाने की कोशिश की जा रही है.
बता दें कि टीआरएस के प्रमुख चंद्रशेखर राव ने कहा था कि 2019 चुनावों के लिए लोग भारत में बदलाव चाहते हैं. मैं एक समान विचाराधार वाले लोगों की बात कर रहा हूं. यदि आवश्यक हो तो मैं आंदोलन का नेतृत्व करने को तैयार हूं.’ यदि लोग नरेंद्र मोदी से गुस्साद हो गए तो राहुल गांधी या कोई और गांधी नया प्रधानमंत्री बन जाएगा. इससे क्याु फर्क पड़ेगा?
उन्होंने कहा, ‘हमने पहले भी दशकों तक उनकी सरकारों को देखा है. देश की मौजूदा राजनीति में बदलाव की जरूरत है. कांग्रेस और बीजेपी से अलग विकल्प तैयार करने की आवश्यकता है.’ केसीआर के इस बयान को पहले असदुद्दीन ओवैसी ने भी समर्थन किया है. इसके बाद पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने उन्हें फोन करके अपनी स्वीकृति दी. झारखंड की पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी केसीआर के साथ तीसरे मोर्चे बनाने के लिए अपना समर्थन दिया.
2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भी पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने कई दलों के साथ मिलकर भाजपा की राह रोकने की कोशिश की थी. तब तो यह काठ की हांडी चढ़ भी नहीं पाई थी और मोर्चा टूट गया. 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, टीडीपी, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर नतीजा अच्छा नहीं रहा. चुनाव से पहले इस मोर्चे के सदस्यों की संख्या 102 थी जो घटकर 80 रह गईं.
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले 2013 में राजनीतिक दल ‘गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस मोर्चा’ खड़ा करने के लिए कवायद की गई. इनमें 4 वामपंथी दलों के साथ सपा, जेडीयू, अन्नाद्रमुक, जेडीएस, झारखंड विकास मोर्चा, असम गण परिषद और बीजद शामिल थे. हर बार की तरह इस बार भी नाकाम साबित हुआ.
2014 के बाद हुई थी पहल, नहीं बन सका
2014 में देश की सत्ता में नरेंद्र मोदी के आने के बाद से मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद की गई थी. इसके लिए सपा, जेडीयू, आरजेडी, इनोलो, आरएलडी सहित तमाम दलों ने कई बैठक की पर इसे अमलीजामा नहीं पहना सके. बिहार के चुनाव से पहले मुलायम सिंह ने अपना कदम पीछे खींच लिया और आखिर में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने महागठबंधन बना लिया. इस दोस्ती का सफर 20 महीने ही चल सका. पिछले साल नीतीश कुमार महागठबंधन से नाता तोड़कर दोबारा बीजेपी में मिल गए.
गौरतलब है कि पहली बार तीसरे मोर्चा 1989 में बना. वीपी सिंह के नेतृत्व में 1989 में जनता दल, असम गढ़ परिषद, टीडीपी और द्रमुक ने ‘राष्ट्रीय मोर्चा’ का गठन किया था. नवंबर 1990 में आंतरिक कलह के कारण यह सरकार गिर गर्ई. इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, पर 1991 तक ही सरकार चला पाए.
इसके बाद 1996 में जब कांग्रेस और बीजेपी सरकार बनाने लायक संख्याबल नहीं पा सके तो कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा एक बार फिर ‘संयुक्त मोर्चा’ के नाम से सामने आया. जनता दल, तेदेपा, अगप, द्रमुक, तमिल मनीला कांग्रेस, सपा और भाकपा, इन 7 दलों ने मिलकर सरकार बनाई. कांग्रेस ने बाहर से इसे समर्थन दिया था. संयुक्त मोर्चा की सरकार का अस्तित्व केवल 2 साल ही टिक पाया और इन 2 सालों में देश को 2 प्रधानमंत्रियों से दो-चार होना पड़ा. पहले प्रधानमंत्री देवेगौड़ा बने फिर आईके गुजराल. इसके बाद से तीसरा मोर्चा की सरकार केंद्र में नहीं बनी है.