झांसी.आपने कीचड़ में कमल खिलने की बात तो सुनी होगी, लेकिन मिशन-2017 की तैयारियों में जुटी भारतीय जनता पार्टी एक ऐसे जादूगर की तलाश में है जो ‘सूखे’ में कमल खिला सके। उत्तर प्रदेश में पथरा सी गई पार्टी की राजनीतिक जमीन पर जो अपने करिश्माई व्यक्तित्व से भाजपा को 202 के जादुई अंक तक पहुंचा सके।
हालांकि, पार्टी आलाकमान की ओर से यहां बेहतर फसल के इरादे से जमीन को तैयार करने का काम तेज कर दिया गया है। अब देखना यह है कि सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का सपना देख रही पार्टी यहां की जमीन में किन मुद्दों का ‘बीज’ डालती है और उसमें ‘खाद-पानी’ डालने के लिए कौन से चेहरे को लेकर आती है?
सन् 1991 में रहा स्वर्णिम समय
फिलहाल, भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में 1991 के चुनाव को स्वर्णिम काल के रूप में देखा जाएगा। सन् 1980 के चुनाव में 11, सन् 1985 के चुनाव में 16 और सन् 1989 के चुनाव में 57 सीटें लेकर दहाई के अंत तक ही पार्टी सीमित रही।
इसके बाद सन् 1991 में कल्याण सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ी भारतीय जनता पार्टी ने लंबी छलांग लगाई। इस चुनाव में पार्टी ने 425 में से 221 सीटें हासिल करके सत्ता हासिल की। प्रदेश के मुख्यमंत्री की बागडोर संभाली कल्याण सिंह ने। हालांकि, अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के साथ ही भाजपाइयों के सत्ताई अरमान भी धूल-धूसरित हो गए।
सन् 1993 से आया गठबंधन सरकारों का दौर
इसके बाद सन् 1993 में फिर चुनाव हुए। इसमें 177 सीटें जीतकर नंबर-1 रहने वाली भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रहना पड़ा। वहीं कम सीटें होने के बावजूद बसपा से हाथ मिलाकर सपा के मुलायम सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। फिर इसी गठबंधन के तहत मायावती भी प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। हालांकि, यह गठबंधन टूटा और फिर एक बार चुनाव हुए। कुछ समय तक विधानसभा भंग रही। फिर 1996 में चुनाव हुए।
भाजपा ने 174 सीटें हासिल कीं और बसपा को 67 सीटें मिलीं। तब सपा के साथ पिछले गठबंधन काल में हुए कड़वे अनुभवों के कारण बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। कम सीटों के बावजूद पहले छह महीने मायावती मुख्यमंत्री रहीं। इसके बाद भाजपा के कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह बारी-बारी से मुख्यमंत्री बने।
सन् 2002 से शुरू हुआ भाजपा का डाउन फॉल
इसके बाद सन् 2002 में चौदहवीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव से भारतीय जनता पार्टी का डाउन-फॉल शुरू हो गया। इस चुनाव से पहले उत्तराखंड राज्य का गठन हो चुका था। इस कारण प्रदेश में विधानसभा सीटों की संख्या 425 से घटकर 403 रह गई। इनके लिए हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अप्रत्याशित रूप से 88 सीट पर आकर अटक गई। वहीं सपा भी 80 सीट जीत सकी। इस चुनाव में बसपा ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 143 सीटें हासिल कीं। एक बार फिर बसपा ने सपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। पहले करीब डेढ़ साल तक मायावती मुख्यमंत्री रहीं और फिर करीब साढ़े साल सपा मुखिया मुलायम सिंह मुख्यमंत्री रहे।
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सन् 2002 से चल रहा है भाजपा का राजनीतिक सूखा
प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीतिक सूखे की शुरूआत सन् 2002 के चुनाव से हुई। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी केवल 88 सीटें जीत सकी। इसके बाद से लगातार पार्टी के प्रदर्शन में गिरावट आई है। सन् 2007 के चुनाव में तो पार्टी 51 सीट पर आ गई। इसके 5 साल बाद सन् 2012 में हुए चुनाव में पार्टी की 4 सीटें और कम हो गईं। सन् 2012 में तो पार्टी केवल 47 सीटों पर ही सिमट गई। गौरतलब है कि 2007 के चुनाव में बसपा ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी और 2012 में सपा ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई।
बुंदेलखंड में भी है बड़ी चुनौती
भारतीय जनता पार्टी के लिए बुंदेलखंड में भी चुनौती कम नहीं है। यहां पर वर्ष 2002 के चुनाव में पार्टी ने 6 सीटें जीती थीं और सात में पार्टी दूसरे स्थान पर रही थी। वहीं, वर्ष 2007 में हुए चुनाव में तो बसपाई लहर के सामने भाजपा का सूपड़ा ही साफ हो गया था। 21 सीटों वाले बुंदेलखंड में भारतीय जनता पार्टी अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी। केवल दो सीटों पर भाजपाई उम्मीदवार दूसरे नंबर पर आए थे।
इसके बाद सन् 2012 के चुनाव में कोंच और मौदहा दो सीटें परिसीमन में खत्म कर दी गई। इस तरह से 2012 में बुंदेलखंड में 21 के बजाए 19 सीटों पर चुनाव हुए। इसमें पार्टी ने तीन सीटें जीतीं, लेकिन दो विधायकों (उमा भारती और साध्वी निरंजन ज्योति) के लोकसभा में पहुंच जाने के कारण उन पर उपचुनाव हुए। इस उपचुनाव में ये सीटें भाजपा के हाथ से खिसक गईं। इस तरह से अभी बुंदेलखंड में पार्टी के पास 19 में से केवल एक सीट है।