झांसी। मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है। उक्त विचार वृन्दावन धाम से पधारे श्री श्री 1008 श्री महंत मदन मोहन दास ने तीसरे दिन की भक्तमाल कथा को कहते हुये रखे।
मंगलवार को आंतिया तालाब के निकट स्थित श्री मेहंदी बाग सरकार के प्रकटोत्सव के उपलक्ष्य में श्री राम जानकी मंदिर मेहंदी बाग में भक्तमाल कथा का आयोजन महंत श्री महंत राम प्रिय दास के सानिध्य में शुरू हो गया । कथावाचक महंत श्री महंत मदन मोहन दास ने जीवन के उद्देश्य की बड़े अच्छे ढंग से व्याख्या की । उन्होने कहा कि यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं। इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। ये। हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल भगवान ही हमारे थे, भगवान ही हमारे हैं और भगवान ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं? किसी कवि ने लिखा है….दाता एक राम, भीखारी सारी दुनियाँ। राम एक देवता, पुजारी सारी दुनियाँ। संसार में तो हर कोई भिखारी हैं। इस संसार में तो हर एक भिखारी हर दूसरे भीखारी से भीख ही तो माँग रहा है लेकिन भ्रम के कारण स्वयं को दाता समझता है। जब कि दाता तो केवल परमात्मा ही है। हम जहाँ भी जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ और अपनी सुख-सुविधा ही देखते हैं। अपने मान की अपेक्षा रखते हैं, अपना स्वागत चाहते हैं, अपनी तारीफ सुनना चाहते है। यह सब हमें संसार से मिलता तो है यह सब क्षणिक मात्रा में लेकिन धोखा अधिक मिलता है। हमें दूसरों को सुख और प्रेम देना चाहिये परन्तु लेने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। मनुष्य के लिये दूसरों की सेवा करना और भगवान को निरन्तर याद करना यह दो कर्म मुख्य है। यदि जो मनुष्य यह दो कर्म नहीं करता हैं तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं होता है, बल्कि ऎसा मनुष्य पशु-पक्षीयों के समान ही होता है। जब हम किसी भी व्यक्ति से आदर-सम्मान चाहते हैं उससे हमें सम्मान नही मिलता है तो हमें कष्ट का अनुभव होता है तब हम कहते हैं वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। यह किसी को जानने की कसौटी नहीं है।बिना किसी मतलब के हर किसी का आदर-सम्मान तो भगवान और भगवान के भक्त महात्मा लोग ही किया करते है। जब तक हमारे अन्दर आदर-सत्कार पाने की इच्छा है, तब तक यह बात हम समझ नहीं सकते हैं। संत कबीर दास जी कहते हैं……….बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय,जब तक हम अपने मतलब की बात सोचते रहेंगे तब तक यही दिखलाई देगा कि भगवान ने हमारे को दुःख दे दिया, भगवान ने हमारे साथ यह कर दिया, संत-महात्मा ने यह कर दिया ऎसा उन्हे नहीं करना चाहिये। जब कि वास्तव में दोष हमारा स्वयं का ही है, संसार की वस्तु ही चाहते है। यदि परमात्मा को ही चाहेंगे तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं रहेगी।जिस दिन परमात्मा को पाने की इच्छा जाग्रत हो जायेगी उसी दिन से संसार से कुछ भी पाने की इच्छा समाप्त हो जायेगी। जब हमें संसार से मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा और स्वयं की तारीफ अच्छी न लगे तब समझना चाहिये कि परमात्मा को पाने की इच्छा उत्पन्न हुई है।जब हम परमात्मा को चाहते हैं तब हमें अपमान, दुःख और किसी भी प्रकार की प्रतिकूलता में भी प्रसन्नता और आनंद का अनुभव होता है।यह बात कुछ ऐसी है….. हमारी समझ में आये या न आये लेकिन महात्माओं से सुना है, जब कभी बीमार पड़ गये और कोई पानी पिलाने वाला न हो तो भी आनंद मिलता है। यदि कोई हमारी सेवा करता है तो वह भी अच्छा नहीं लगता है। यह बात हर किसी की समझ में नहीं आयेगी लेकिन सत्य है। जो जगदीश का प्रेमी होता है उसको जगत के सुख अच्छे नहीं लगते हैं और जिसे सांसारिक सुख अच्छे लगते हैं तो उसको परमात्मा से प्रेम कैसे हो सकता है? इस ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति व्यक्ति के विवेक जाग्रत होने पर ही मिल सकती है। श्री राम चरित मानस में तुलसी दास जी कहते हैं……..बिनु सत्संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई। सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला, सत्संग के बिना मनुष्य का विवेक जाग्रत नहीं होता और सत्संग श्री राम जी की कृपा के बिना नहीं मिलता है। संतों की संगति आनंद और कल्याण का मुख्य मार्ग है, संतों की संगति ही परम-सिद्धि का फल है और सभी साधन तो फूल के समान है।भगवान की कृपा निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर कर्म करने से प्राप्त होती है। इसलिये मनुष्य को संसार में भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिये ही कर्म करना चाहिये। मनुष्य का संसार में विश्वास पतन का कारण होता है, और ईश्वर में विश्वास शाश्वत-सुख और परम-शान्ति का कारण होता है। । आज तक का इतिहास उठाकर देख लो इस संसार से कभी कोई तृप्त नही हुआ है। जो वस्तु जिसके पास अधिक है उसको उसकी उतनी ही अधिक ज़रुरत रहती है। जिसके पास धन अधिक है, उसको और अधिक धन पाने की इच्छा होती है। जिस निर्धन व्यक्ति के पास रुपये नहीं है उसको पचास, सौ रुपये मिल जायेगें तो समझेगा कि बहुत मिल गया लेकिन जो जितना धनवान व्यक्ति होता है उसकी भूख उस निर्धन व्यक्ति से अधिक होती है।संसार में हमें सुख-सम्पत्ति का त्याग नहीं करना है, परन्तु सुख-सम्पत्ति को पाने की इच्छा का त्याग करना चाहिये।यह इच्छा ही तो हमारे पतन का कारण बनती आयी है। ज्ञान के द्वारा ही संसार का त्याग हो सकता है और सम्पूर्ण विश्वास के साथ ही परमात्मा से प्रेम हो सकता है। जिनसे भी हमारा संसारिक संबन्ध है उन सभी का हमारे ऊपर पूर्व जन्मों का कर्जा है, उन सभी का कर्जा चुकाने के लिये ही तो यह शरीर मिला है। कर्जा तो हम चुकता करते हैं लेकिन साथ ही नया कर्जा हम फिर से चढ़ा लेते हैं। जब तक हम कर्जदार रहेंगे तो मुक्त कैसे हो सकते हैं। यह तभी संभव हो सकेगा जब कि हम इस संसार से नया कर्जा नहीं लेंगे। संसार तो केवल हमसे वस्तु ही चाहता है, हमारे को कोई नहीं चाहता है।हम सभी के ऊपर मुख्य रूप से दो प्रकार का ही कर्जा है, एक शरीर जो प्रकृति का कर्जा है, दूसरा आत्मा जो परमात्मा का कर्जा है।इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये।हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये। यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है। यही मानव जीवन की परमसिद्धि है। यही वास्तविक मुक्ति है। यह मुक्ति शरीर रहते हुए ही प्राप्त होती है। इसलिये यह मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है। प्रारंभ में पूजन राम प्रिया दास महंत जी ने किया व आरती सदर विधायक रवि शर्मा ने की । इस अवसर पर चक्रपाणि चतुर्वेदी, एके भट्ट, अनिल, शरद खरे, रमाकांत तिवारी, राकेश तिवारी आदि उपस्थित रहे। आभार विश्व हिंदू परिषद महामंत्री अंचल अरजरिया ने व्यक्त किया।