संदीप पौराणिक
भोपाल, 25 जून | वक्त तो अपनी रफ्तार से आगे बढ़े जा रहा है, मगर अब से 41 वर्ष पहले की 25 जून की यादें आज भी डरा जाती हैं, क्योंकि ‘आपातकाल’ ने मेरा बचपन छीना है, जिसे कोई लौटा नहीं सकता। इसके साथ ही आपातकाल ने लड़ने की वह ताकत भी दी है, जो किसी भी विषम हालात से मुकाबला करने से पीछे नहीं हटने देती।
आपातकाल की तारीख आते ही अब से 41 साल पहले के दिन, दिल और दिमाग पर घूमने लगते हैं, आंखों में आंसू होते हैं तो मन विचलित हो उठता है। वजह हंसते खेलते बचपन पर डाका जो डाल दिया गया था। पिताश्री डॉ. पुष्कर नारायण पौराणिक का कसूर सिर्फ इतना था कि वे सरकारी मुलाजिम होने पर भी व्यवस्था से टकराने में कभी पीछे नहीं रहे।
दमोह में जन्मे और रायपुर के आयुर्वेदिक कॉलेज से पढ़ाई करके सरकारी नौकरी पाने के बाद पिताश्री का अधिकांश समय छतरपुर में ही बीता, वे यहां सरकारी चिकित्सालय में वर्ष 1958 में पदस्थ हुए। अपने बिंदास और हर किसी की मदद की खातिर आगे आने के स्वभाव के कारण वे चिकित्सक कम सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर ज्यादा पहचाने जाने लगे। सरकारी कर्मचारी होने के बावजूद सरकार के खिलाफ नारा बुलंद करने में कभी पीछे नहीं रहे।
सरकारी नौकरी में आने के बाद लगभग दो दशक तक छतरपुर में रहते हुए सरकार के खिलाफ होने वाली हर गतिविधि का हिस्सा बनने के कारण उन्हें कांग्रेस विरोधी माना जाने लगा था, यही कारण था 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात को आपातकाल लगने के बाद से उनकी गिरफ्तारी के प्रयास शुरू हो गए थे।
कई पुलिस अफसरों से उनके अच्छे रिश्ते थे तो उन्होंने बुलाकर कहा कि डाक्टर माफीनामा भर दें, तो गिरफ्तारी नहीं होगी, मगर उन्होंने माफीनामा देने से इनकार कर दिया और आखिरकार 23 जुलाई, 1975 को उनकी गिरफ्तारी तब हुई, जब वे अस्पताल जाते वक्त एक मिठाई व्यवसायी के यहां बैठे थे।
हम सभी रोज की तरह उस रात भी पिताश्री का इंतजार कर रहे थे, क्योंकि हर रात वे मीठा अर्थात पेड़ा, मलाई का हलुआ या रबड़ी लेकर आया करते थे, मगर उस रात वे नहीं आए, एक व्यक्ति उनकी साइकिल लेकर आया, तो सभी सहम गए। उसने बताया, “डाक्टर साहब को गिरफ्तार कर लिया गया है।”
माताजी माधवी देवी और हम पांच भाई-बहन कुलदीप, प्रदीप, मैं (संदीप) और बहन ओमश्री व जयश्री पिताजी की गिरफ्तारी से स्तब्ध थे। सभी एक-दूसरे से यही पूछे जा रहे थे कि अब क्या होगा, बाबूजी कब आएंगे? मगर किसी के पास उत्तर नहीं था। बड़े भाई कुलदीप उस समय 10वीं में पढ़ते थे। मां सरकारी स्कूल में निम्न श्रेणी की शिक्षिका थीं।
पिताजी के जेल जाते ही जिंदगी बदल गई थी, क्योंकि वे ही हम सभी भाई-बहनों की जरूरतों को पूरा किया करते थे। पिताजी की गिरफ्तारी के बाद बहुत कम लोग ऐसे थे, जो बात भी करने को तैयार हों, सभी डर सहमे होते थे। इस दौर में मकान मालिक रामचरण असाटी ने साफ कह दिया कि किराया तो अब तभी लेंगे, जब डाक्टर साहब छूटकर आ जाएंगे।
असाटी मुहल्ला के लोगों ने जो साथ दिया, वह किसी परिवार के सदस्य भी ऐसा नहीं कर सकते। शिवचरण असाटी, भवानीदीन असाटी, पन्ना लाल असाटी, छन्नुलाल असाटी वे लोग थे जो हर वक्त मदद के लिए तैयार रहा करते थे।
वक्त गुजरने के साथ हालात बिगड़ते गए, मां अकेली कमाने वाली और उन पर हम पांच भाई-बहनों का लालन-पालन की जिम्मेदारी। ऐसे लगता था कि सभी टूट जाएंगे, मगर मां थी कि हार मानने को तैयार नहीं थी। अपनी समस्या और दुखड़ा किसी को सुनाने की उसकी आदत नहीं थी। अगर किसी को सुनाती थी तो वह भगवान थे। दिन में छह से आठ घंटे पूजा उनकी दिनचर्या का हिस्सा थी।
एक दिन दादी मां मानकुंवर बाई ने माताजी से कहा, “बेटा, जब जेल जाओ तो पुष्कर से कहना कि वह माफीनामा लिख दे, इंदिरा उसे छोड़ देगी।”
मां जब जेल से मिलकर लौटी तो दादी मां ने पूछा, “पुष्कर से माफीनामा लिखने के लिए कहा था?” इस पर माताजी ने विनम्रता से कहा, “मां, अगर उन्होंने कोई गलती की होगी तो माफी भगवान से मांगेंगे, इंसान से किसलिए?”
आपातकाल का सीधा असर हमारी जिंदगी पर पड़ा था। बाबूजी की हर रोज चाट, मिठाई खिलाने की आदत ने बिगाड़ दिया था। उनके जेल जाते ही सब कुछ बदल गया था, चाट और मिठाई तो दूर की बात हो गई थी, घर की रसोई भी आसानी से नहीं चलती थी। हां, पेट भरने की दिक्कत नहीं थी। वैसे घी, दूध, फल, सब्जी जरूर नियमित रूप से मिलना बंद हो गई थी, क्योंकि मां की कमाई कम थी। पिताजी के जेल जाने से पहले तेल कभी देखा नहीं था, और बाद में कभी घी देखने को नहीं मिला।
बाबूजी के जेल जाने के बाद मां हम सभी भाई-बहनों को दोपहर का खाना खिलाने के बाद शाम लगभग छह बजे रोटी अचार के साथ खा लिया करती थी। अब हमें लगता है कि उसने पिताजी के जेल में रहने की अवधि में सिर्फ दिन में एक वक्त ही खाना खाया होगा और वह भी अचार के साथ रोटी।
हमारी ननिहाल सागर में है, नानाजी पं. रामकृष्ण शास्त्री आर्थिक तौर पर संपन्न थे, मगर मां ने कभी भी किसी को अपनी समस्या नहीं बताई। जब भी किसी ने पूछा, सहजता से जवाब दिया, सब ठीक चल रहा है, कोई दिक्कत नहीं है।
पिताजी 29 जनवरी, 1977 को जब जेल से छूटे तो उनका अंदाज ही बदल गया था। धोती-कुर्ता पहने, काफी लंबी दाढ़ी और पीठ तक लहराते घुघराले बाल किसी संत-योगी का अहसास करा जाते थे। उनके विचार ही बदल गए थे, व्यवस्था से लड़ने का उत्साह मगर दोगुना था। उनके मन में किसी के प्रति दुराभाव नहीं था, हां वे यह जरूर कहते थे कि अब देश में बदलाव जरूरी है।
जेल से छूटकर आए तो वे पूर्व विधानसभाध्यक्ष मुकुंद सखाराम नेवालकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी श्रीनिवास शुक्ल, समाजवादी नेता व पूर्व विधायक जगदंबा प्रसाद निगम से जुड़े किस्से सुनाते थे। जेल के किस्से तब तक चलते रहे, जब तक वे जीवित रहे।
वे अपने बड़े दामाद महेंद्र कुमार प्यासा के साथ कार में बैठकर घूमने निकलते तो उन्हें भी अपनी पुरानी यादों को साझा करने से नहीं हिचकते थे। उनकी लोगों से यारी ऐसी थी कि दामाद को भी पंजाब होटल के मालिक और अपने दोस्त अमरीक सिंह के यहां खाना खिलाने ले जाते।
वे जब भी जेल के किस्से सुनाते थे, हमें जेल के बाहर की यादें ताजा हो जाती थीं। अब वे नहीं हैं, मां भी हमारा साथ छोड़ गई हैं, मगर आपातकाल लागू होने की तारीख करीब आते ही फिर वही दर्द उभर आता है, जो आपातकाल ने दिए हैं। हां, हमारे परिवार की खुशहाली आपातकाल ने ही छीनी थी।
आज भले ही कुछ नेता आपातकाल में कुछ दिन जेल में रहकर उसकी कीमत के तौर पर सुख उठाने की होड़ में लगे हों, मगर मेरे बाबूजी और परिवार के किसी सदस्य ने किसी तरह का राजनीतिक लाभ लेने की न कोशिश की और न ही जरूरत महसूस की।