संदीप पौराणिक
भोपाल| एक बड़ी मशहूर कहावत है, ‘चोर चोरी से जाए, मगर हेराफेरी से न जाए।’ लगता है कि मध्यप्रदेश के मेडिकल कालेजों में दाखिले को लेकर यही कुछ चला आ रहा है। यही कारण है कि जबलपुर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर दोबारा हुई नीट के पहले चरण की काउंसिलिंग भी संदेहों के घेरे में आ गई है।
आशंका जताई जा रही है कि दूसरे राज्यों के छात्रों को दाखिला देने के लिए काउंसिलिंग चार्ट में विभाग ने मूल निवास प्रमाणपत्र के स्थान पर ‘आवेदनकर्ता का राज्य मध्यप्रदेश’ (नीट एप्लीकेंट स्टेट एमपी) कर दिया है। दूसरे राज्यों के छात्रों को दाखिला देने के लिए सरकार सर्वोच्च न्यायालय तक चली गई। सवाल उठता है, आखिर इतनी मेहरबानी क्यों?
ज्ञात हो कि कई राज्यों में चिकित्सा महाविद्यालयों के लिए आयोजित होने वाली परीक्षाओं में गड़बड़ी के मामले सामने आने के बाद सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एज्यूकेशन ने देशव्यापी चिकित्सा और दंत चिकित्सा महाविद्यालयों में दाखिले के लिए नेशनल इलेजिबिलिटी कम इंट्रेंस टेस्ट (नीट)-2017 का आयोजन किया। राष्ट्रीय स्तर की यह परीक्षा पहली बार आयोजित की गई। इसमें 15 प्रतिशत देश और 85 प्रतिशत सीटें स्थानीय राज्य के छात्रों के लिए आरक्षित की गईं।
परीक्षा नियमों के अनुसार, परीक्षा में सफल हुए छात्र को उसी राज्य में दाखिला मिलेगा, जहां का मूल निवास प्रमाणपत्र उसने आवेदन के समय लगाया होगा। व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) घोटाले के जरिए विश्वव्यापी ख्याति अर्जित कर चुके मध्यप्रदेश के अफसरों ने नीट के नियम में भी सुराख कर दिया।
परिणाम आने के बाद दो दिन छात्रों को कागजी खानापूर्ति में रह गई कमी को सुधारने का मौका दे दिया। फिर क्या था, कई दूसरे राज्यों के छात्रों ने मध्यप्रदेश का मूल निवास प्रमाणपत्र बनवा लिया। साथ ही आवेदन में भी संशोधन कर दिया।
दूसरे राज्यों के छात्रों को दाखिला दिए जाने का मामला उठाते हुए विनायक परिहार व तारिषी वर्मा की ओर से जबलपुर उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई थी। परिहार बताते हैं कि उनकी शिकायत सही पाए जाने पर न्यायालय ने नियमों का पालन करते हुए दोबारा काउंसिलिंग करने और पूर्व की दोनों काउंसिलिंग रद्द करने का आदेश दिया। इस आदेश के खिलाफ राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय गई, जहां से सरकार को कोई राहत नहीं मिली।
सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले चंद्रशेखर गौर ने न्यायालय के आदेश से पहले हुई कांउसिलिंग के चार्ट और आदेश के बाद की पहली काउंसिलिंग के चार्ट का अध्ययन करने पर पाया है कि पूर्व की पहली काउंसिलिंग के चार्ट में जहां मध्यप्रदेश का मूल निवास प्रमाणपत्र (एमपी डोमेसाइल स्टेट्स) का जिक्र था, तो दूसरी काउंसिलिंग में यह कॉलम ही गायब कर दिया गया। अब न्यायालय के आदेश पर हो रही काउंसिलिंग में एमपी डोमेसाइल स्टेट्स के स्थान पर ‘नीट आवेदनकर्ता का राज्य मप्र’ (नीट एप्लीकेंट स्टेट एमपी) कर दिया गया है।
परिहार और गौर का कहना है कि राज्य के मूल निवासी की बाध्यता को लेकर पूर्व में उपयोग में लाई गई शब्दावली और वर्तमान की काउंसिलिंग के चार्ट में दर्ज शब्दावली का अंतर कई सवाल खड़े कर रहा है। क्या जिन छात्रों ने मध्यप्रदेश से आवेदन भरकर परीक्षा दी है, उन्हें दाखिला दिया जाएगा, या मूल निवासी को।
इस संबंध में चिकित्सा शिक्षा विभाग के आयुक्त शिवशंकर शुक्ला ने आईएएनएस से चर्चा करते हुए कहा कि काउंसिलिंग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार चल रही है। जिन छात्रों ने आवेदन के समय अपने को मध्यप्रदेश का निवासी बताया है, उनके दस्तावेजों का परीक्षण करके ही दाखिला दिया जाएगा। काउंसिलिंग चार्ट में बदली शब्दावली पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
एक तरफ चिकित्सा शिक्षा विभाग शब्दावली के बदलाव पर ज्यादा कुछ कहने को तैयार नहीं है, वहीं परीक्षार्थी और उनके परिजन परेशान हो रहे हैं। दूसरी ओर, काउंसिलिंग में भी बड़ी जल्दबाजी दिखाई जा रही है और छात्रों को काउंसिलिंग से लेकर महाविद्यालय चयन और फीस के लिए घंटों में समय दिया जा रहा है।
बताया गया है कि दोबारा पहली काउंसिलिंग 31 अगस्त की रात 12 बजे से शुरू होकर एक सितंबर के सुबह नौ बजे तक चली। नतीजे दो सितंबर को छह बजे आए और कालेज का चयन कर 24 घंटों में राशि जमा करने का समय दिया गया।
सवाल उठता है कि राज्य के दूर-दराज से आने वाले परीक्षार्थियों के लिए इतनी कम अवधि में डाफ्ट तैयार कराना कैसे संभव हुआ होगा? निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में तो 9,00000 (नौ लाख) रुपये तक का डाफ्ट देना था। इससे लगता है कि सरकार की मंशा कुछ और है। इस स्थिति का लाभ वे लोग आसानी से उठा लेंगे, जिन्होंने पूर्व से साजिश रच रखी है।