मोतीलाल राजवंश ….’ हिंदी सिनेमा के पहले नेचुरल एक्टर..’….

मैंने अपने बचपन में एक फ़िल्म वक़्त देखी थी लेकिन उस 3 घंटे की फ़िल्म में मुझे एक धुआंधार वकील का केवल एक सीन ही याद रह गया बाद में बड़ा होने पर केवल इसी एक सीन के कारण जब पूरी फिल्म देखी तो अहसास हुआ कि अभिनेता मोतीलाल अपने इस बहुत छोटे से रोल के बावजूद भी प्रभाव छोड़ते हैं ‘अनाड़ी ‘ फ़िल्म में मोतीलाल का अभिनय अवार्ड विजेता महानायक राज कपूर पर भारी पड़ा था ……मोतीलाल का जन्म 4 दिसंबर 1910 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में हुआ था मोतीलाल की पहचान उनके फेल्ट-ब्लैक हैट से थी,जी बिना मुड़े तुड़े उनके सर पर विराजमान रहता था बड़े बड़े फ्लावर प्रिंट वाले शार्क-स्कीन के शर्ट-पैंट, चमकते जूते, मस्त चाल अंदाज, हाव-भाव में नफासत, बातचीत का राजसी लहजा, कुल मिलाकर एक जिंदादिल आदमी की छवि पेश करते थे ……. ‘मोतीलाल राजवंश…’

हिन्दी सिनेमा में कुछ अभिनेता कम ही हुए है ,जिन्होंने मौलिक अभिनय (नैचरल एक्टिंग) के सहारे कामयाबी हासिल की इस शृंखला में मोतीलाल प्रमुख हैं जिन्हे आप हिंदी सिनेमा का ‘वास्तविक अभिनेता कह सकते है उनके खाते में अनेक अच्छी फिल्में दर्ज हैं युवावस्था में नौसेना ज्वॉइन करने के इरादे से मुंबई पँहुचे तो लेकिन ठीक परीक्षा के दिन बीमार हो गए और प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए इस बात का उन्हें दुःख तो था,वो कहते है न की जो भी होता है वो अच्छे के लिए ही होता है मोती लाल के साथ भी यही हुआ लेकिन एक दिन शानदार कपड़े पहनकर शूटिंग देखने के इरादे से सागर स्टूडियों जा पहुँचें वहाँ डायरेक्टर कालीप्रसाद घोष किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे घोष बाबू युवा मोतीलाल को देखकर दंग रह गए,क्योंकि अपनी फिल्म के लिए उन्हें ऐसे ही हीरो की तलाश कर रहे थे घोष बाबू ने अपनी फिल्म ‘शहर का जादू’ (1934) के हीरो के रूप में उन्हें चुन लिया तब फिल्मों में पाश्र्वगायन आम प्रचलन में नहीं था, और ज्यादातर फिल्मो में कलाकार खुद ही गाते थे उसलिए मोतीलाल ने कुछ फिल्मो में गाने खुद गाये मोतीलाल संगीत के ज्ञाता भी थे मोती लाल जी के दोस्त अच्छी तरह जानते थे की उन्हें बाँसुरी, वायलिन, हार्मोनियम और तबला बजाना आता है इसलिए उनके विशेष आग्रह पर उनके घर के अपार्टमेंट की छत पर संगीत की महफिले देर रात तक जमती थी

मोतीलाल को बचपन से शिकार का शौक था वे कई बार घोड़े के साथ ही दुर्घटना के शिकार हुए रेस खेलने के शौक़ के चलते मोती लाल ने बहुत रुपया हारा उनके बुरे दिनों का यह भी एक कारण था वे दस साल की उम्र में दोनाली चलाना सीख गए थे उन्हें पेटिंग का भी शोक था और वे क्रिकेट भी शानदार खेलते थे स्टार इलेवन में उन्हें हमेशा शामिल किया जाता था एक बार वह विजय मर्चेंट की गेंद पर घायल भी हुए उनके आँख में लगी थी, जिसके कारण कई दिनों तक हॉस्पिटल रहना पड़ा दूसरी तरफ विजय मर्चेंट ने प्रायश्चित स्वरूप वर्षो तक मोतीलाल की हर फिल्म ‘फर्स्ट-डे-फर्स्ट शो’ देखने का व्रत लिया और इसे निभाया चालीं चैपलिन की फिल्म ‘द किड’ से प्रेरित एच.एस. रवैल की फिल्म ‘मस्ताना’ (1954) में मोतीलाल ने एक फक्कड़ की भूमिका को जीवंत किया मोतीलाल ने अपनी सौम्य कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी से तमाम समकालीन नायकों को पीछे छोड़ दिया बॉम्बे-टॉकीज ने जब गाँधीजी की प्रेरणा से ‘अछूत-कन्या’ बनाई थी तो रणजीत स्टूडियो ने भी उसके जवाब में ‘अछूत’ (1940) नामक फिल्म बनाई, जिसमें मोतीलाल के साथ गौहर हेरोइन थीं इस फिल्म का हीरो बचपन की अछूत सखी का हाथ पकड़ कर समाज से लड़ते हुए अछूतों के लिए मंदिर के दरवाजे खुलवाता है फिल्म को महात्मा गाँधी और सरदार पटेल ने भी पसंद किया था और कहा था की इस तरह की फिल्मे मनोरंजन के साथ साथ समाज को बदलने के लिए पथ प्रदर्शक का सच्चा कार्य करती है यह फिल्म आज भी शोध के लिए राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय पुणे के पास सुरक्षित है मोती लाल ने अस्सी से अधिक फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई, जिनमें राजकपूर अभिनीत ‘अनाड़ी’ (1959) और दिलीपकुमार की ‘पैगाम’ (1959) तथा ‘लीडर’ (1964) भी शामिल है 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का रूप धारण कर अपने अद्भुत अभिनय की और भी मिसालें पेश कीं बिमल राय की फिल्म ‘देवदास’ (1955) में उन्होंने नायक दिलीपकुमार के शराबी दोस्त चुन्नी बाबू की भूमिका में जान डाल दी।अगर आप हिंदी सिनेमा के प्रेमी है तो याद कीजिये वह सीन जब नशे में टुन्न चुन्नी बाबू अपने घर लौटते हैं और अपनी छड़ी को दीवार पर पड़ रही खूँटी की परछाई पर पर टाँगने की कोशिशें करते हैं। यह अत्यंत मार्मिक दृश्य था.फिल्म फेअर ने उन्हें वर्ष के सर्वोत्तम सह अभिनेता का पुरस्कार घोषित किया था, जिसे लेने से उऩ्होंने इनकार कर दिया।उनका मानना था की उनका अभिनय इससे कही ज्यादा उम्दा था …. बिमल राय की फिल्म ‘परख’ (1960) की चरित्र भूमिका के लिए उन्हें फिल्म फेअर अवॉर्ड मिला राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ (1956) में उन्होने शराबी के रोल को चार चाँद लगा दिए एक थी लड़की’ (1949) में ‘लारालप्पा गर्ल’ मीना शौरी और मोतीलाल की चुलबली जोड़ी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया यह जोड़ी ‘एक-दो-तीन’ (1953 ) में भी दोहराई गई और उतनी ही कामयाब रही मोतीलाल के अभिनय के अनेक पहलू थे कॉमेडी रोल में अगर उन्होंने दर्शकों को गुदगुदाया तो फिल्म ‘दोस्त’ (1944 ) और ‘गजरे’(1948 ) में गंभीर अभिनय करके उन्हें विभोर कर दिया उनके करियर की सबसे उत्तम फिल्म ‘मिस्टर सम्पत’ (1952) थी

‘ज़िन्दगी ख्वाब है ख्वाब में झूठ क्या ओर भला सच है क्या ‘ उन पर फिल्माया ये गाना वाकई उनकी ज़िन्दगी का फलसफा बन गया आखिर उस समय के ज्यादातर हीरो की तरह मोतीलाल का अंतिम समय भी दुःखदाई रहा उन्होंने ‘राजवंश प्रॉडक्शन्स’ की स्थापना कर महत्वाकांक्षी फिल्म ‘छोटी-छोटी बातें’ (1965) शुरू की वे स्वयं इस फिल्म के लेखक, नायक, निर्माता-निर्देशक सब कुछ थे अब इसे भाग्य की विडम्बना कहे की फिल्म को राष्ट्रपति का ‘सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट’ जरूर मिला, मगर गर्व का यह पल देखने के लिए मोती लाल इस दुनिया में मौजूद नहीं थे फिल्म बनाते-बनाते वे न सिर्फ दिवालिया हुए, बल्कि परेशानियों से जूझते जीवन से भी अलविदा कह गए ठीक उसी तरह जैसे जैसे गीतकार शौलेन्द्र के लिए ‘तीसरी कसम’ का निर्माण उनका काल साबित हुआ, वैसा ही हाल मोतीलाल का हुआ 17 जून 1965 को बीच कैंडी अस्पताल में वो इस दुनिया को छोड़ गए उनकी अधूरी फिल्म को पूरा करने का जिम्मा गायक मुकेश ने उठाया, जो उनसे बहुत प्यार करते थे फिल्म ‘पहली नजर’ (1945) में मोतीलाल के लिए गायक मुकेश ने पहली बार पाश्र्वगायन किया था.गायक मुकेश उनके चचेरे भाई थे नीली आँखों वाले अभिनेता चन्द्रमोहन मोतीलाल के अंतरंग मित्र थे मोतीलाल ने अपने समय के सभी प्रसिद्ध कलाकरों के साथ काम किया, जिनमें दिलीपकुमार, राजकपूर, नरगिस, मधुबाला, नसीम बानो, सुरैया, नूरजहाँ, मीनाकुमारी, माधुरी (पुरानी) और वनमाला के नाम उल्लेखनीय हैं मोतीलाल पूरे रईसी अंदाज में दोस्तों के लिए शराब पार्टियाँ का भव्य आयोजन करते थे और घुडदौड़ में उनके घोड़े भी दौड़ते थे ये दोनों शौंक उनके लिए घातक सिद्ध हुए मालाबर हिल्स पर उनका आलीशान बंगला था हमेशा अपने मित्रो के लिए शराब ,संगीत की महँगी आलीशान पार्टिया करने वाले मोती लाल की किस्मत कहे या इस रुपहले परदे की दुनिया का काला सच कि उऩकी अंतिम यात्रा में उनके साथ हमेशा रहने वाले इस फ़िल्मी दुनिया का कोई मशहूर सितारा नहीं था उनके जीवन के आखिरी वर्षों की दोस्त रही अभिनेत्री नादिरा ने उनकी चिता को मुख अग्नि दी थी.मोती लाल राजवंश ने हिन्दी-सिनेमा की मेलोड्रामाई डायलॉग डिलीवरी और अभिनय की चिरपरिचित लीक को छोड़कर स्वच्छंद अभिनय की एक नई शैली से दर्शको को रू-ब-रू कराया अभिनय के लिए अपने किरदार पर मेहनत करते उन्हें कभी नहीं देखा गया जो उन्हें अपने समकालीन अभिनेताओं से अलग पहचान देता है हिंदी सिनेमा जब तक रहेगा उनके मौलिक और वास्तविक अभिनय का हमेशा कर्जदार रहेगा आज उनके जन्मदिन पर भावभीनी श्रद्धांजलि …..

पवन मेहरा
(सुहानी यादे …बीते सुनहरे दौर की …)

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