इलाहाबाद। हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा पाए एक बंदी को हाई कोर्ट से जमानत मिलने के बाद भी करीब 25 साल जेल में ही रहना पड़ा। इसमें भी उसके 21 साल मानसिक रोग चिकित्सालय में बीते। 25 साल के बाद वह जमानत पर बाहर आया।
इसके बाद वकीलों के पैरवी न करने के कारण पुलिस ने उसे साल भर पहले फिर जेल में डाल दिया। यह मामला सुनने के बाद हाई कोर्ट ने बंदी को रिहा करने का आदेश देने के साथ ही न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े लोगों को याद दिलाया कि देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के समान है।
जस्टिस महेंद्र दयाल और जस्टिस दिनेश कुमार सिंह की खंडपीठ ने यह मामला सुनने के बाद कहा कि अगर अंतिम स्तर से निर्धारित हुए बिना ही किसी को पूरी सजा भुगतने के लिए विवश कर दिया जाता है तो यह संविधान में दिए गए स्ववंत्रता के अधिकार का हनन है।
लोकतंत्र में न्याय में हुई देरी का पहला शिकार पीड़ित होता है।
कोर्ट ने अपने फैसले में लिखवाया है कि अभियुक्त के नए अधिवक्ता या तो गैरहाजिर रहे या बहाने बनाकर तारीख लेते रहे। अपीलार्थी को अपने या सरकारी वकील का सहयोग नहीं मिला।
इन टिप्पणियों के साथ ही कोर्ट ने अपीलार्थी के आजीवन कारावास की सजा को जेल में बिताए जा चुके 26 साल में बदलकर उसे रिहा करने का आदेश दे दिया। अगर न्याय मिलने में देरी होती है तो यह कानून के शासन की अवधारणा पर सबसे बड़ा कुठाराघात होता है।
न्याय प्रदान करने से जुड़े लोगों को ध्यान रखना ही हेागा कि देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के समान है।