झांसी: निकाय चुनाव मे सभी दावेदार हैं। भीड़ भी जुटा रहे। बस, एक कमी नजर आ रही। दावेदार राजनैतिक दल का सहारा लेने को आतुर हैं। यही से सवाल उठता है कि क्या इनमे खुद का आत्मविश्वास नहीं या फिर जीतना ही मकसद है?
पिछले कुछ दिनो ने आपने देखा होगा कि कुछ चेहरे समाज के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हर क्रियाकलापो मे नजर आये। व्यापार जगत हो या फिर समाजसेवा। राजनीति की धारा को छोड़ दे , तो इस धारा से कई चेहरे अपने दम का दमखभ दिखाने मे पीछे नहीं रहे। पहले ना-ना करते रहे। चुनाव नहीं लड़ेगे। फिर दावा ठांेक दिया।
पहले बात मन मोहन गेड़ा की कर ली जाए। समाज मे उभरते सितारे के रूप मे अचानक सामने आये मन मोहन गेड़ा ने सांस्कृतिक कार्यक्रमो से लेकर गरीबों की किस्मत बदलने वाले आयोजनो मे मुख्य अतिथि की भूमिका निभायी। मन मोहन गेड़ा के पास कई पॉजीटिव प्वाइंट हैं, तो कुछ माइनस भी हैं।
मन मोहन को उनकी सरलता दूसरो से अलग करती है। बोलचाल से लेकर ज्ञान के अक्षर उन्हे विरासत मे तो नहीं मिले, लेकिन चंद दिनो मे उन्हांेने अपने आप को वक्ताओ की लिस्ट मे शामिल कर लिया।मन मोहन का सबसे बड़ा माइनस प्वाइंट यह उभर कर सामने आता है कि उन्हंे किसी प्रकार का राजनैतिक अनुभव नहीं है।
सामाजिक संगठन के बल पर राजनैतिक परिस्थितियों मे खुद को समाहित कर लेना आसान नहीं है। दूसरे व्यापारी नेता हैं संजय पटवारी। भटकते मन के प्राणी कहे जाने वाले संजय की मुसीबत यह है कि वो खुद तय नहीं कर पा रहे कि चुनाव लड़ना है या नहीं। अखबार उनकी दावेदारी बता रहे।
पोस्टर भी शहर मे इसी आशय के साथ लगे थे कि संजय झांसी का श्रृंगार करने को तैयार हैं? लेकिन बीते दिनो उप्र व्यापार मंडल की बैठक मे यह तय नहीं हो पाया कि संजय को मैदान मे उतारा जाए या नहीं। यानि संगठन खुद मान रहा कि संजय की तासीर अभी जीत के मुहाने पर पहुंचने लायक नहीं है? संजय के बारे मे कहा जा रहा है कि उनके पास संगठन है। चेहरा हैं। फिर संजय क्यों दम नहीं साध पा रहे और राजनैतिक प्रस्ताव का इंतजार कर रहे?
कमोवेश यही स्थिति दूसरे प्रत्याशियों की है। समाज मे प्रतिष्ठित होने और कददावर होने का दावा करने वाले नामो मे एक नाम आनंद अग्रवाल का भी है। सामाजिक और व्यापारिक चेहरा होने के साथ आनंद पिछले कुछ सालो से जनता से दूरी बनाने के कारण कुछ कमजोर साबित हो रहे हैं।
शायद यही वजह है कि उन्हे भी दल के सहारे की जरूरत है।यहां एक सवाल जनता के मन मे यह भी उठ रहा है कि क्या ऐसे सामाजिक प्राणियों को इतनी जल्दी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित कर देना चाहिए? या फिर उन्हे और निखरने की जरूरत है, ताकि वो किसी की बैशाखी ना बने । दूसरे उन्हे शामिल करने को बेताब दिखे।