झांसीः आने वाले दिनो मे निकाय चुनाव का मुकाबला शुरू होने वाला है। भाजपा के साथ जीत की गारंटी वालों को अपनी दम और पहचान के बल पर कड़ी टक्कर देने वाले भी तैयार हैं। यानि हर वार्ड से सभासद बनना आसान नहीं होगा।नये परिसीमन के बाद निश्चित ही सभासदी का चुनाव बदले परिवेश वाला है।
एक तय दायरे मे जीत के लिये गुणाभाग लगाने वाला यह चुनाव आज के दौर मे सभी दांव वाला हो गया है। वैसे झांसी मे कुल 60 वार्ड हैं। इनमे अधिकांश वार्डो मे नये परिसीमन के तहत आ गये हैं। शासन ने वार्डों के परिसीमन का एलान कर दिया है। जाहिर है कि उम्मीदवार और वर्तमान सभासद अपनी जीत को लेकर गुणाभाग मे जुट गये हैं।
यहां सबसे रोचक यह है कि अधिकांश नये दावेदार भाजपा की ओर रूख कर रहे हैं। भाजपा से टिकट पाने का उनका मकसद अपनी जीत सुनिश्चित करना है, लेकिन क्या ऐसा होगा? यह सवाल उठ रहा है। माना भाजपा का कुछ इलाकों मे दबदबा हो सकता है, लेकिन यह भी तय है कि सभासदी का चुनाव अपनी छवि और व्यवहार के दम पर जीता जा सकता है। इसके तमाम उदाहरण है।बरहाल, यहां सबसे ज्यादा रोचक यह हो गया कि जिन वार्डों मे सामान्य वर्ग से प्रत्याशी सामने आ रहे हैं, उनके बीच मुकाबला बेहद कठिन हो रहा है।
मार्केटसंवाद ने सामान्य वर्ग के कुछ वार्डों के आंकलन का प्रयास किया। इनमे युवा प्रत्याशियो की भरमार है। सभी किसी से कम नहीं की तर्ज पर मैदान मे है। हर गली कूचे मे पोस्टर, होडिग्स लग गये हैं। जनसंपर्क जारी है।इस बार एक नयी बात देखने को मिल रही है। युवाओ की भागीदारी अधिक होने से महिलाओ और बुजुर्गों के वोतो की अहमियत बढ़ती नजर आ रही है। युवा वर्ग अपने साथ के वर्ग को तो किसी न किसी तरीके से लुभाने का प्रयास कर लेगा, लेकिन महिलाओ और बुजुर्गों को वोट के लिये समाहित करना मुश्किल होगा।
इस समीकरण ने जहां राजनैतिक दलो को फायदे के संकेत दिये हैं, तो युवा प्रत्याशियांे की मुश्किले भी बढ़ा दी है। अनुभव के नाम पर शून्य, लेकिन जोश से भरपूर इन युवा प्रत्याशियो को जीत का ककहरा पढ़ने मे इसलिये भी मुश्किल दिख रही है क्यांेकि अधिकांश प्रत्याशी किसी न किसी राजनैतिक दलो के आसरे हैं। इसमे सबसे ज्यादा डिमांड भाजपा की है। भाजपा के लिये यह मुश्किल हालातो वाली स्थिति है।
महानगर अध्यक्ष प्रदीप सरावगी के सामने चयन उतना ही कठिन हो रहा है, जितना जीत के लिये पार्टी के द्वारा तय किया गया आंकड़ा।वैसे सभासदी के साथ मेयर चुनाव को लेकर भी कमोवेश यही स्थिति है। दावेदार तमाम है, लेकिन दलो के सामने जीत वाला चेहरा चुनना मुश्किल। निर्दलीय प्रत्याशियो को भी अपनी छवि पर पूरा भरोसा है।हां, इस बार एक नयी बात मेयर चुनाव को लेकर सामने आयी है। कल तक जो छोटे दल दावेदारी से बचते थे, आज वो पहले से ही मैदान मे आ गये हैं। मसलन, बुन्देलखण्ड क्रान्ति दल, आम आदमी पार्टी आदि।इन सबसे से इतर कांग्रेस के ग्राफ मे आयी तेजी ने समीकरण को बदलने का माददा दिखा दिया है। यानि कहा जा सकता है कि भाजपा का निश्चित जीत का फार्मूला इतना आसान नहीं होगा।
मेयर पद के लिये अभी कांग्रेस से प्रत्याशियो के नाम सामने नहीं आये हैं, लेकिन माना जा रहा है कि पार्टी पिछले लंबे समय से विधानसभा के लिये दावेदारी कर रहे अरविंद वशिष्ठ पर दांव लगा सकती है। यह इसलिये क्यांेकि अरविंद वर्तमान मे सबसे सहज, सरल और मिलनसार व्यक्तित्व के रूप मे हैं। सपा मे द्वंद जारी है, तो बसपा का जनाधार सिमटने के बाद प्रत्याशियो की तलाश ही मुश्किल भरी है। पार्टी भले की यह संकेत दे रही हो कि डमडम और नरेन्द्र झां जैसे प्रत्याशी उसके पास हैं, लेकिन दोनो मे अपना दम बचा नहीं वाली स्थिति है।
डमडम की विश्वसनीयता दल बदलने और मौका पर नजर आने के चलते पूरी तरह से विफल हो गयी है। वो अपनी विश्वसनीयता को साबित कर पाएंगे, यह कहना कठिन है।इधर, जो समाजसेवी व्यक्तित्व समारोहो मे अपने चेहरे रोशन कर रहे हैं, उन्हे दावेदार मानते हुये यदि दांव लगाया भी जाए, तो कोई चेहरा ऐसा नजर नहीं आता, जो जनता को लुभा सके। संजय पटवारी को केवल व्यापारिक वर्ग तक सीमित कहा जा सकता। वो अपने ही लोगांे के बीच विवाद भरे माने जाते हैं। मन मोहन गेड़ा सरल व्यक्तित्व के हैं, लेकिन अनुभव उन्हे कमजोर बना देता है।
कमोवेश यही स्थिति दूसरे समाजेसवियो की है।बरहाल, यह मुकाबला रोचक रहेगा, इसमे कोई शक नहीं है। यहां सवाल यही है कि क्या भाजपा जीत की गारंटी बनी रहेगी? या फिर निकाय चुनाव चेहरे नहीं पर्सनल व्यवहार के बल पर चयनित लोगो की कतार का नजारा होगा?