जस्टिस डी.वाई. चन्द्रचूड़ कहते हैं,” महिला को शादी के बाद सेक्सुअल च्वाइस से वंचित नहीं किया जा सकता।” अर्थात सात जन्मों के साथ और पतिव्रता की मान्यता बकवास है?
अगर ब्रह्माण्ड में सब कुछ चक्र पर आधारित है तो ये भी मान लेना पड़ेगा कि मानव सभ्यता का भी अपना चक्र है। जहाँ आज हम उस संस्कृति के आसपास घूम रहे हैं जो सदियों पहले आर्याव्रत या भारत देश का हिस्सा रही है, सतयुग के बाद त्रेता युग से द्वापर और अब कलियुग में इसे विस्तारित भाव से देखना पड़ेगा। यह और बात है कि आप इसका व्यक्तिगत समर्थन ना भी करें, लेकिन जो हालात समाज के हैं, उसमें इसे नकारने से वाक़ई कुंठा बढ़ेगी, और बारीक़ी से देखें तो ये अवस्था बाल्यावस्था से किशोरावस्था और फिर युवावस्था तक दिल-ओ-दिमाग़ के अंदरख़ाने कहीं पैवस्त भी रहती है। जिसे विवेक, मर्यादा और संस्कारों की रस्सी से सब बांधे रहते हैं, इस पर बेशक़ बहस होनी चाहिए और किसी नतीजे तक पहुंचना भी ज़रूरी है।
हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब को पश्चिमी बदतमीज़ियों ने निगलना तो कब का शुरू कर दिया था ।
अब माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी कोई कसर ना छोड़ी तहज़ीब को मिटाने की।
जो बची खुची तहज़ीब है उसे भी समलैंगिकता को जायज़ ठहराना और विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना भी हर महिला का अधिकार है और उस अधिकार को छीनना स्वतन्त्रता के अधिकार का उल्लंघन है, बता कर समाज का बेड़ा ग़र्क़ करने की पूरी तैय्यारी कर दी गई है ।
कल को स्वतन्त्रता का अधिकार का हवाला देकर और न जाने कितनी गन्दगी हमारे समाज को दलदल बना देगी और हम उसमें उगे हुए कमल के फूल को देखकर बस तालियाँ बजाते रह जाएंगे ।
ये मर्ज़ी की बीमारी ले डूबेगी समाज को, परिवारों के विखंडन का सबसे बड़ा कारण भी यही है, अब इसे कानून का रूप मिल जाने से पता नहीं कितने चरित्रों का नाश होगा।
उम्मीद पर ही दुनियां कायम है, चरित्र और मर्यादा इंसान के जीवन में सीमा तय करते हैं, जहां दोनों का नाश हुआ, समझो गाड़ी कभी भी गहरी खाई में गिर सकती है, कई लोगों के साथ ऐसा हो चुका है।
पति—पत्नी के बीच में वो को स्वीकार्यता देकर सुप्रीम कोर्ट क्या कहना चाह रहा है? आपकी मर्ज़ी आप इसको किस तरह से देखते हैं, लेकिन इस देश से सेक्स को एक निषेध सामाजिक चर्चा के दायरे से बाहर करना होगा। मसला है तो बहस होनी ही चाहिए, घर के भीतर भी और बाहर भी।
अब तक तो ठीक था । धारा 377 के बाद ये दूसरा मामला है जिसमें आधुनिकता के नाम पर कुछ तय भारतीय मानकों के साथ बड़ा समझौता सा किया गया है।
धारा 497 समाप्त होने के बाद– छूटे हुए, भूले-बिसरे फिर से मिलेंगे और तब उन्हें कैसे रोकोगे? हत्या और मारपीट के लगभग 30 प्रतिशत अपराध इसी कारण से होते थे। इन अपराधों में बढ़ोत्तरी अवश्य होगी पुलिस को नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
हमारे लोकतंत्र की ख़ूबी ही मैं, तुम और हम की है लेकिन अब यह मैं, तुम और वो की हो जायेगी।
सनातन संस्कृति की दुहाई देकर सत्ता में आने और लाने वाले स्वभूं संगठनों को सांप क्यों सूंघा हुआ है? क्या उच्चतम न्यायलय के यह फैसले भारतीय सनातन संस्कृति पर हमला नहीं? अगर किसी अन्य राजनीतिक पार्टी की सत्ता में ऐसे फैसले आते तो भी क्या वे ऐसे ही मौन वृत धारण किये रहते?
हमारी संस्कृति और समाज किस दिशा में जा रहा है ? इस बात को लेकर बुद्धिजीवियों से लेकर न्यायपालिका और संसद तक गंभीर नहीं है यह बदलाव समाज के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता हुज़ूर ।
याद रखिए, आज हो सकता है कुछ लोगों को यह सही लग रहा हो मगर इसका ख़ामियाज़ा हमारे आने वाली नस्लों को अपनी बर्बादी से चुकाना ही पड़ेगा।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिंतक
(मो0न0-09415943454
ये लेख शहंशाह हैदर आब्दी की निजी विचारधारा है। मार्केट संवाद में ऐसे पाठकीय प्रतिक्रिया के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है।