मुहर्रम (ग़मगीन पर्व) पर विशेष
मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिये दिये सर्वश्रेष्ठ त्याग और बलिदान के जनक हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों को हम हिन्दुस्तानियों के हज़ारों सलाम।
“ज़िल्लत की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है।” हज़रत इमाम हुसैन।
मोहर्रम एक एहतिजाज (सत्याग्रह) है, ज़ुल्म, अत्याचार, असत्य, अहंकार, शोषण, अन्याय, मानवीय और धार्मिक मूल्यों के अवमूल्यन के ख़िलाफ। तो फिर इस्लामी नया साल और उस पर मुबारक बाद का औचित्य?
इस्लामी नया साल “हिजरी” क्यों कहलाता है?
और हमारे नबी सल्लाहोअलैहेवसल्लम, चारों खुलाफा ए राशेदीन, सभी इमामों और हमारे बुज़ुर्गों और किसी राजनेता, शासनाध्यक्ष आदि ने आज तक इस्लामी नए साल की मुबारकबाद क्यों नहीं दी? कभी सोचिये?
दरअसल इस्लामी नया साल रसूले खुदा की ‘हिजरत’ से शुरू होता है। यानी हमारे नबी सल्लल्लाहोअलैहेवसल्लम को इतना परेशान किया गया कि वो अपना घर बार और शहर छोड़कर दूसरे शहर हिजरत करने पर मजबूर हो गए। और उन्होंने मक्का शहर से मदीना शहर में हिज़रत की थी। इस तरह ‘हिजरत’ से ‘हिजरी’ बना और इस्लामी नए साल ‘हिजरी’ की शुरूआत हुई।
अब आप बताएं क़ि रसूले ख़ुदा का परेशान होकर घर बार छोड़ना मुबारक बाद का मौक़ा कब से होगया ?
उसके बाद सन् 61 हिजरी में रसूले खुदा के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों की कर्बला में दर्दनाक शहादत ने मोहर्रम को और ग़मगीन बना दिया।
भाई, दूसरों के नए साल खुशीयों और हर्षोउल्लास के साथ शुरू होते हैं चाहे वो हमारे ईसाइयों भाईयों के हों या हिन्दू भाईयों के या किसी और के। जबकि इस्लामी नया साल रसूले खुदा और उनकी आल और अहबाब की मुश्किल से शुरू होता है।
किसी की परेशानी पर खुश होना और मुबारक बाद देना, इंसानियत के खिलाफ भी है। यही वजह किसी ने इस्लामी नए साल की मुबारकबाद कभी नहीं दी। हाँ पिछले कुछ सालों से अंग्रेजों की नक़ल कर यह सिलसिला कुछ लोंगो ने शुरू किया है, जो गलत है।
कुछ समझे भाई? क्या आपमें हिम्मत है कि अपने प्यारे नबी से कह सकें, या रसूलल्लाह आपको मुबारक हो आप को परेशान कर घर बार छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा है। फिर भी आपको इस्लामी नया साल मुबारक।
अगर ऐसा कर सकते हैं तो खूब कहिये इस्लामी नया साल मुबारक। वरना यह अंग्रेज़ो और दूसरों की नक़ल से बाज़ आईये।खुद भी गुमराह होने से बचिए और दूसरों को भी बचाईये। मेहरबानी होगी।
कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। इस घटना ने पूरी आलमे इनसानियत को हिला कर रख दिया था। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीक़ा अपनाना चाहिए। जबकि आज ज़्यादातर आमजन दुनियावी उलझनों में इतना उलझ गया कि दीन की सही जानकारी न के बराबर हासिल कर पाया है। अल्लाह और रसूले ख़ुदा वाले तरीक़ों से लोग वाकिफ ही नहीं हैं।
किसी की शहादत और परेशानी पर जश्न मनाना और बधाई का आदान प्रदान करना इंसानियत के विरुध्द भी है। ऐसे में जरूरत है हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर ग़ौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करनेकी। क्योंकि जिबरील-ए-अमीन फरिश्ते ने इमाम हुसैन की शहादत की सूचना जब रसूले ख़ुदा कि दी तो वो भी रोये थे।
क्या किसी मुसलमान में हिम्मत है कि कहे,” या रसूलल्लाह, आपका प्यार नवासा शहीद कर दिया गया। उसके भाई, बेटों, भतीजो भांजो और दोस्तों को नहीं बख्शा गया। उसका छ: माह का बेटा भी मारा गया। आपका घर लूट लिया गया। लेकिन इस्लाम बच गया इसलिए आपको इस्लामी नया मुबारक हो।”
अगर आप इंसानी दिल रखते हैं और रसूले खुदा से हकीकी मोहब्बत करते हैं तो सोचिये , किसी की परेशानी और गम पर मुबारक बाद देना कहां की इंसानियत है?
फिर खूब इस्लामी नये साल की मुबारक दीजिये।
रसूले खुदा की ज़िन्दगी में भी कुछ लोग ऐसे थे जिन्होने कलमा तो पढ़ लिया था, मुसलमान तो हो गये थे। लेकिन जिनकी वफादारी हमेशा अबु-जेहल और अबु-सुफयान के साथ रहती थी। आज भी उनकी नस्ल के ही कुछ लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनकी अज़ादारी के खिलाफ तरह-2 के बेतुके फतवे जारी कर मुखालफत करते रहते हैं। इनकी हमदर्दी आज भी यज़ीद और उसके बाप मुआविया के साथ है। यह ऐसे ही मुसलमान हैं जैसे यज़ीद और मुआविया थे।
ऐसे लोगों को ही क़ुराने पाक में “मुनाफेक़ीन” कहा गया है। यही लोग आज भी इस्लाम के नाम पर दहशत गर्दी करते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य हैं कि इमाम हुसैन ने यज़ीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहाँ पर किसी भी प्रकार की मानव हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है।
यज़ीद के सिपाही हाजी के भेष में पवित्र मक्का में इमाम हुसैन की हत्या के इरादे से पहुंच गये थे। मक्के में किसी प्रकार का ख़ून-ख़राबा न हो, उसकी मर्यादा क़ायम रहे अत: इमाम हुसैन ने हज की एक उप-प्रथा जिसको “”उमरा” कहते हैं, अदा किया और मक्का भी छोड़ दिया ।
इमाम हुसैन ने यज़ीद की सेनापति के सामने हिंद (भारत) आने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया। ऐसे में भारत के साथ कहीं न कहीं इमाम हुसैन की शहादत का संबंध है- दिल और दर्द के स्तर पर। यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर मुहर्रम मनाया जाता है।
हम हिंदुस्तानी मोहर्रम को सच के लिये क़ुर्बान हो जाने के जज़्बे से शोकाकुल वातावरण में मनाते हैं, दत्त और हुसैनी ब्राहमण, दाऊदी बोहरा, ख़ोजा एवं शिया मुसलमान के साथ हर इंसाफ पसंद तो पूरे दस दिन सोग मनाते हैं, सादा भोजन करते हैं, काले कपड़े पहनते हैं और ग़मगीन रहते हैं। यह पर्व हिंदू-मुस्लिम एकता को एक ऊँचा स्तर प्रदान करता है।
फिर उदारवादी शिया संप्रदाय के विचार धार्मिक सहिष्णुता की महान परंपरा की इस भारत भूमि के दिल के क़रीब भी हैं। सम्पूर्ण भारत में ताज़िए निकाले जाते हैं, अज़ादारी की जाती है। एक अनुमान के अनुसार उनमें से महज 25% ताज़िए और अज़ादारी ही शिया मुसलमानों के होते हैं बाकी अन्य मुस्लिम समुदाय और हिंदुओं के होते हैं।
झांसी में मोहर्रम में रानी लक्ष्मीबाई का “ताज़िया”, दयाराम बढई की “मस्जिद” और रमज़ान में श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी और उनके परिवार द्वारा हज़रत अली की शहादत पर ऐतिहासिक लक्ष्मीताल स्थित ख़ाकीशाह कर्बला पर प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाने वाली “मजलिसे अज़ा” और “अलमे मुबारक” की ज़ियारत और इनके नगर धर्माचार्य पन्डित वसंत विष्णु गोलवल्कर जी और उनके साथियो द्वारा अलमे मुबारक और ताज़ियों पर पुष्पांजलि के साथ अश्रूपूर्ण श्रृध्दांजलि इसकी मिसाल हैं।
दरअसल इमाम हुसैन की शहादत को किसी एक धर्म या समाज या वर्ग विशेष की विरासत के रूप में क़तई नहीं देखा जाना चाहिए। पूरी दुनिया के लगभग सभी धर्म व समुदायों के शिक्षित व बुद्धिजीवी लोग, इतिहासकार तथा जानकार लोग हज़रत इमाम हुसैन द्वारा इस्लाम व मानवता की रक्षा के प्रति दी गई उनकी कुर्बानियों के क़ायल रहे हैं।
भारत वर्ष में महात्मा गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, सरोजनी नायडू, पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पी.वी. नरसिम्हाराव, अटल बिहारी बाजपेयी और अब तो कल ही इंदौर में एक मजलिस में नरेंद्र दामोदर दास मोदी और शिवराज सिन्ह चौहान आदि सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन को अपने अंदाज़ से श्रद्धांजलि दी है। महात्मा गांधी ने तो डांडी यात्रा के दौरान 72 लोगों को अपने साथ ले जाने का फैसला हज़रत इमाम हुसैन के 72 व्यक्तियों के क़ाफिले को आदर्श मानकर ही किया था। महात्मा गांधी ने इस्लामी दर्शन से प्रभावित हो कर ही कहा था,” जियो तो अली की तरह- मरो तो हुसैन की तरह”।“
आज भी पूरे भारतवर्ष में विभिन्न स्थानों पर कई ग़ैर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा मोहर्रम के अवसर पर कई आयोजन किए जाते हैं। पानी की सबील लगाई जाती है। किसी हिन्दु शायर ने क्या खूब कहा है:-
”मैं हिन्दु हूं, क़ातिले शब्बीर नहीं हूं,
नबी की आल को शिकवा भी नहीं है।
मेरे माथे की सुर्खी पे न जाओ,
तिलक है खून का धब्बा नहीं है।“
वर्तमान समय में जबकि इस्लाम पर एक बार फिर उसी प्रकार के आतंकवाद की काली छाया मंडरा रही है। साम्राज्यवादी व आतंकवादी प्रवृति की शक्तियां हावी होने का प्रयास कर रही हैं तथा एक बार फिर इस्लाम धर्म उसी प्रकार यज़ीदी विचारधारा के शिकंजे में जकड़ता नज़र आ रहा है।
ऐसे में हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों द्वारा करबला में दी गई उनकी कुर्बानी और करबला की दास्तान न सिर्फ प्रासंगिक दिखाई देती है बल्कि हज़रत हुसैन के बलिदान की अमरकथा इस्लाम के वास्तविक स्वरूप व सच्चे आदर्शों को भी प्रतिबिंबित करती है। इस्लामी रंगरूप में लिपटे आतंकवादी चेहरों को बेनक़ाब किए जाने व इनका मुकाबला करने की प्रेरणा भी देती है।
हमें गर्व है कि हम हिन्दुस्तानी हैं और इमाम हुसैन के “अज़ादार” हैं। इसलिये वर्तमान आतंकवाद, अन्याय, अत्याचार और पक्षपात के विरूध्द सशक्त संघर्ष कर ही करबला के शहीदों को सच्ची श्रृध्दांजली दे सकते हैं।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिंतक (मो0न0-09415943454