आज सीता नवमी, भई प्रगट कुमारी
बैसाख की चिलचिलाती दोपहर होने को आई पर आज भी लगता है महाराज जनक की मनोकामना पूरी नही होगी! खेत में हल चलाते महाराज ने ऊपर देखा, बादल दूर दूर तक नहीं दिख रहे थे, उन्होंने बैलों को ललकारा, बैल हल खींचने लगे। महारानी सुनयना पीछे पीछे, विदेहराज हल की मुठिया पकड़े आगे आगे। अचानक महारानी ने देखा पूर्व दिशा में बादल घिरने लगे हैं, उन्होंने महाराज को पुकारा लेकिन महाराज अपनी ही धुन में बैलों को हांकते जा रहे हैं। सुनयना ने जोर से बुलाया, बैल रुक गए लेकिन महाराज का ध्यान सुनयना की ओर न होकर बैलों की ही ओर था।
महारानी को लगा कि उनके बुलाने से जनक ने हल रोक दिया किंतु देखती हैं कि महाराज बैलों को हांक रहे पर बैल हैं कि आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रहे, उनके खुरों से खेत की मिट्टी खन गई लेकिन वह आगे नहीं जा पा रहे। सुनयना आगे गईं और उन्होंने देखा कि हल का फाल किसी बक्से में फंसा है। महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ कि खेत में बक्सा कैसे आया! उन्होंने बैलों को पास में बांध कर हल खोल दिया, फाल निकाला और बक्से को धरती से निकाल लिया।
बक्सा भारी था, वह उसे उठाकर पेड़ के नीचे ले गए, मेघ अब पूरी तरह से घिर आए थे, मौसम शीतल हो गया, हवाओं में की सुगंध भर गई। बक्से के अंदर कंपकपाहट सी हुई, विस्मित महाराज ने उसका ढक्कन उठाया,
ऐसा लगा जैसे हजारों यज्ञ की ज्वालाएं शीतल होकर मुस्कुरा रही हों, सुबह की धूप ने आकार ले लिया हो, कमल खिल गए हों। बक्से के अंदर कन्या जनक को देखकर मुस्कुराने लगी, बरसात होने लगी। मिथिला जी उठी, पेड़ हरियाराने लगे, ताल में बूंदे छम छमाने लगीं।
महाराज ने रानी की ओर देखा, रानी के हृदय में मातृत्व छलक उठा उन्होंने बालिका को छाती से लगा लिया और जनक से बोलीं, माता पृथ्वी स्वयं भूमिजा स्वरूप में हमारे यहां पधारी हैं महाराजा!
भूमिजा नही महारानी यह जानकी हैं , महाराज बालिका का मुख देख देख निहाल हुए जा रहे थे।
कन्या के अद्भुत रूप देखकर महाराज ने उसे लालानि रूप में आने की विनती की। बालिका ने मनोहर रूप लिया और उसके के मंगल रोदन स्वर की गंगा प्रवाहित होने लगी।
मिथिला के घर घर में सोहर उठने लगा,
मिथिला मगन हुई आज सिया को जनम भयो।
सुनयना को हरष अपार सिया को जनम भयो।।
*(जगत जननी जगतारिणी मां जानकी के प्राकट्योत्सव की मंगलकामनाएं 🙏)*