झांसी: राजनीति मे अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये बेताब प्रदीप सरावगी उर्फ भाईजी छात्र जीवन से ही पराजित योद्वा रहे हैं। उन्हे सन 1989 मे बीबीसी मे छात्रसंघ चुनाव मे करारी हार का सामना करना पड़ा था। यहां सवाल यह उठ रहा है कि क्या प्रदीप अपनी उस हार को जीत मे बदलने का माददा तैयार कर पाएं हैं?
यह सही है कि राजनीति मे एक दो हार से सफलता या असफलता का पैमाना तय नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी तय है कि जनाधार का पैमाना अंकित जरूर किया जा सकता है।
इन दिनो महानगर अध्यक्ष प्रदीप सरावगी उर्फ भाईजी अपने लिये राजनैतिक जमीन को पुख्ता करने की कोशिश मे है। पार्टी के अंदर जुगाड़ मैनेजर के नाम से पुकारे जाने वाले भाईजी के छात्रजीवन के इतिहास के पन्ने पलटते, तो पाते है कि प्रदीप अपने आसपास भीड़ का जमावड़ा करने का माददा पैदा ही नहीं कर पाए।
छात्रजीवन मे सबसे ज्यादा आकर्षण का मौका होता है। बेबाकी से बात और छात्रों के लिये लड़ने का जुनून चरम पर होता है। भाईजी के छात्र कार्यकाल मे भी ऐसा कुछ नजर नहीं आया।
बात करे सन 1989 के बीबीसी चुनाव की। उस समय प्रदीप सरावगी छात्र संघ का चुनाव लड़ रहे थे। आपको बता दे कि बीबीसी ऐसा कालेज हैं, जहां छात्रसंघ के चुनाव भी मर्यादा के दायरे मे होते हैं।
यानि आपका सही दमखम ही जीत का आकंड़ा तय करता है। बीबीसी मे हल्ला मुददो के लिये किया जा सकता।बताया जाता है कि उस समय प्रदीप ने अध्यक्ष पद के लिये दावेदारी की। उनके सामने डॉ. सुनील तिवारी थे।
डा. सुनील तिवारी वर्तमान मे कांग्रेस के युवा नेताओ मे शुमार किये जाते हैं। बौद्विक मूल्यो मे कहीं उपर गिने जाने वाले सुनील छात्र जीवन से ही जीवंत मुददो पर संघर्ष का रास्ता अपनाये रहे हैं।
खैर, बात चल रही थी चुनाव की। उस दौर का चुनाव बहुत गहमागहमी के साथ प्रतिष्ठा से लड़ा जाता था। प्रदीप सरावगी ने जीत के लिये सभी फंडे आजमाये। जैसा कि उनके बारे मे कहा जाता है कि वो हर मामले मे समाज को आगे करते हैं। छात्रसंघ चुनाव मे भी उन्हांेने जातीय समीकरण फिट करने की कोशिश की।
इतना ही नहीं तत्कालीन सांसद राजेन्द्र अग्निहोत्री जैसे दिग्गज भी प्रदीप सरावगी के समर्थन मे खड़े हो गये। हार जीत के लिये बाहरी समर्थन से ज्यादा छात्रों के बीच पकड़ जरूरी थी। इसमे प्रदीप सरावगी मात खा गये।
नतीजे सामने आने पर डॉ. सुनील तिवारी विजेता घोषित हुये। आपको जानकर हैरानी होगी कि जीत का दावा करने वाले प्रदीप सरावगी तीसरे नंबर पर रहे। दूसरे नंबर पर मनीष निगम रहे थे। यानि भाईजी शुरू से ही निचले पायदान पर रहे?
आज जबकि चुनाव माहौल है। छात्रसंघ के दौर के दोनो योद्वा मेयर पद के लिये मैदान मे आने को बेताव है। ऐसे मे इतिहास उस मुहाने पर आ खड़ा हुआ है, जहां बाजी जीतने के लिये समर्थन को अपने लिये बताने के लिये जरूरत महसूस हो रही है। सवाल उठ रहा है कि यदि प्रदीप सरावगी भाजपा से मेयर पद के लिये दावेदार बन जाते हैं और डा. सुनील तिवारी कांग्रेस से।
ऐसे स्थिति मे प्रदीप को एक बार फिर अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी का सामना करना होगा। प्रदीप को जनता के बीच का नेता मानने मे काफी दिक्कते हैं। अब तक प्रदीप की ओर से ऐसा कोई कार्य सामने नहीं आया है, जो जनहित को दर्शाता हो। जबकि सुनील की ओर से लक्ष्मीतालाब, स्वच्छता, मेडिकल कालेज आदि मुददो पर लगातार संघर्ष और परिणाम की दिशा मे प्रयास वाला माना जा सकता है।
बरहाल, इतिहास खुद को दोहराने की तैयारी मे है। देखना है कि छात्र जीवन से ही पराजित योद्वा का खिताब हासिल किये प्रदीप सरावगी अपराजित योद्वा की शुरूआत कर पाते हैं या नहीं?