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राम मोहम्मद सिंह आज़ाद को हार्दिक भावभीनी श्रृध्दान्जली।

आपको पढ़कर अचरज हो रहा होगा, यह भला कैसा नाम है? वह हिंदू थे या मुसलमान? मैं उसकी चर्चा क्यों कर रहा हूं? कौन था यह शख्स?

बताता चलूं। सरदार उधम सिंह (26 दिसम्बर 1899 से 31 जुलाई 1940) का नाम भारत की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब के क्रान्तिकारी के रूप में दर्ज है। आज उनकी 119वीं जयन्ती है ।

सरदार उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को एक सिख परिवार में पंजाब राज्य के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में हुआ था | सरदार उधम सिंह की माँ का उनके जन्म के दो वर्ष बाद 1901 में देहांत हो गया था और पिताजी सरदार तेजपाल सिंह रेलवे में कर्मचारी थेजिनका उधम सिंह के जन्म के 8 साल बाद 1907 में देहांत हो गया था | इस तरह केवल 8 वर्ष की उम्र के उनके सर से माता पिता का साया उठ चूका था |

अब उनके माता पिता की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह उधम सिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में दाखिला कराया | शहीद उधम सिंह का बचपन में नाम शेर सिंह था लेकिन अनाथालय में सिख दीक्षा संस्कार देकर उनको उधम सिंह नाम दिया गया | 1918 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया |

13 अप्रैल 1919 को स्थानीय नेताओ ने अंग्रेजो के रोलेट एक्ट के विरोध में जलियावाला बाग़ में एक विशाल सभा का आयोजन किया था | इस रोलेट एक्ट के कारण भारतीयों के मूल अधिकारों का हनन हो रहा था | अमृतसर के जलियावाला बाग़ में उस समय लगभग 20000 निहत्थे प्रदर्शनकारी जमा हुए थे | उस समय उधम सिंह उस विशाल सभा के लिए पानी की व्यवस्था में लगे हुए थे |

जब अंग्रेज जनरल डायर को जलियावाला बाग़ में विद्रोह का पता चला तो उसने विद्रोह का दमन करने के लिए अपनी सेना को बिना किसी पूर्व सुचना के निहत्थे प्रदर्शनकारीयो पर अंधाधुंध गोलिया चलाने का आदेश दिया | अब डायर के आदेश पर डायर की सेना ने 15 मिनट में 1650 राउंड गोलिया चलाई थी |

जब गोलिया चली तब जलियावाला बाग़ में प्रवेश करने और बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता था और चारो तरफ से चाहरदीवारी से घिरा हुआ था | उस छोटे से दरवाजे पर भी जनरल डायर ने तोप लगवा दी थी और जो भी बाहर निकलने का प्रयास करता उसे तोप सेउड़ा दिया जाता था | अब लोगो के लिए बाहर निकलने का कोई रास्ता नही था और लगभग 3000 निहत्थे लोग उस भारी नरसंहार में मारे गये थे | उस जलियावाला बाग़ में एक कुंवा था लोग अपनी जान बचाने के लिए उस कुंवे में कूद गये लेकिन कुंवे में बचने के बजायलाशो का ढेर लग गया | इसके बाद भी जब जनरल डायर वहां से निकलते वक़्त अमृतसर की गलियों में भारतीयों को गोलियां मारते हुए गया |

उस नरसंहार में शहीद उधम सिंह  जीवित बच गये थे और उन्होंने अपनी आँखों से ये नरसंहार देखा था जिससे उन्हें भारी आघात लगा | उधम सिंह उस समय लगभग 11-12 वर्ष के थे और इतनी कम उम्र में उन्होंने संकल्प लिया कि “जिस डायर ने क्रूरता के साथ मेरे देश केनागरिको की हत्या की है इस डायर को मै जीवित नही छोडूंगा और यही मेरे जीवन का आखिरी संकल्प है ” | अब उधम सिंह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए 1924 में वो ग़दर पार्टी में शामिल हो गये और भगत सिंह के पद चिन्हों पर चलने लगे |

वह भारत की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार कापुरुषता, सांप्रदायिकता और सामाजिक बिखराव को रोज़-ब-रोज़ पढ़ते गए, गुनते गए। इसीलिए भारतीय श्रमिक संघ और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में काम करते हुए उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंहआज़ाद रख लिया। जो साम्प्रदायिक एकता का प्रतीक बना ।

अब उन्होंने विदेश जाने का विचार किया क्योंकि उनको वहां से असलहा गोला बारूद लाना था | इसके लिए उनके पास धन नहीं  था। तो उन्होंने धन इकट्ठा करने के लिए बढ़ई का काम करना शुरू कर दिया था | लकड़ी का काम करते करते उन्होंने इतना पैसा कमा लिया किवो विदेश चले  गये ।  भगत सिंह के कहने पर वो विदेश से हथियार लेकर आये लेकिन बिना लाइसेंस हथियार रखने के जुर्म में उनको पांच वर्ष की सज़ा हो गयी | 1931 में उनकी रिहाई हो गयी और अब उन्होंने फिर विदेश जाकर हथियार लाने की योजना बनाई |

इस बार वो पुलिस को चकमा देकर पहले कश्मीर पहुंचे और वहाँ से जर्मनी चले गये | 1934 से जर्मनी से लन्दन पहुंच गये और लन्दन में जाकर उन्होंने एक होटल में वेटर का काम किया  ताकि कुछ ओर पैसे इकट्ठे कर बन्दुक़ ख़रीदी जा सके | उनको ये सब काम करने मेंपुरे 21 साल लग गये । फिर भी उनके मन में प्रतिशोध की ज्वाला कम नही हुयी थी |

ज़रा सोचिए, एक अनाथ नौजवान, जिसके पल्ले में कुछ न हो, वह यूरोपीय और अफ्रीकी देशों से होता हुआ लंदन पहुंचता है। वहां मकान किराये पर लेता है। एक कार खरीदता है और साथ ही रिवॉल्वर भी। वह अपनी योजनाओं को अमली जामा पहना पाते, इससे पहलेजनरल डायर अपनी मौत मर गया, पर हत्याकांड का हुक्मनामा जारी करने वाला उसका बॉस यानी लेफ्टिनेंट गर्वनर सर माइकल ओडवायर ज़िंदा था। उधम सिंह ने उसके वध का फैसला किया।

एक दिन उन्हें मालूम पड़ा कि ओडवायर रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की सभा में भाग लेने के लिए लंदन के कैक्सटन हॉल में आने वाला है। उन्होंने एक मोटी किताब को बीच में से इस तरह काटा कि उसमें रिवॉल्वर समा सके। अगले कुछ घंटे उनका मनोरथ साधने वालेसाबित हुए। पर यह सच है कि इस कांड के बाद वह जीते जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सितारे बन गए।

31 जुलाई, 1940 को बरतानिया की पेंटनविले जेल में उन्हें फांसी दे दी गई थी। उम्र- 40 साल। आरोप- हत्या, राष्ट्रद्रोह आदि- सर्वाधिक संगीन मामलों में सज़ा-ए-मौत दी गई ।

उधम सिंह के प्रशंसक कहते हैं कि उन्होंने खुद को इसलिए गिरफ्तार करवा दिया था, ताकि उनका संदेश पूरी दुनिया तक पहुंच सके। ऐसा करते वक्त यक़ीनन उन्हें मालूम था कि अंग्रेज सूली पर चढ़ा देंगे। हो सकता है कि उनके प्रशंसक इस मामले में अतिरेक करते हों, परयह सच है कि उसी कालखंड में भगत सिंह और उनके साथियों ने असेंबली में इस नीयत से बम फेंका था, ताकि बहरे भी सुन सकें।

वे इसका अंजाम जानते थे। उस ज़माने के नौजवान इंसानियत को बनाए रखने के लिए मर रहे थे, मार रहे थे। उधम सिंह और उन जैसे नौजवानों के लिए भाईचारा और सर्व धर्म समभाव जैसे अल्फाज़ किसी आराधना से कम नहीं होते थे। सामाजिक सद्भाव, समानता और स्वतंत्रता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, वो आज पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। क्योंकि आज इसका उल्टा हो रहा है।अफसोस और चिंता की बात है कि इन की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही दुनिया में हर रोज़ दर्जनों लोग किसी न किसी तरह की नफरत की आग में झुलसकर दम तोड़ देते हैं।

हम कैसे मनहूस वक्त में सांस ले रहे हैं? हमारी सुबहें आशंका और रातें हताशा लेकर आती हैं। धरती पर मनोरोगियों की बढ़ती संख्या की एक वजह यह भी है।कोढ़ में खाज यह कि राजनेता इन नफरतों को अपनी स्वार्थपूर्ति का ज़रिया बनाने में जुटे हैं।

संसार के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप सिर्फ आग उगलने वाले भाषणों की वजह से ही अपने अन्य स्पर्धियों पर भारी साबित हुए हैं।

जब सत्तानायक प्रेम की जगह नफरत का सहारा लेने लगें, तो दुनिया के नौजवान रास्ते से भटकेंगे ही।

खुद हमारे देश में तमाम सियासी हस्तियां और तथाकथित धार्मिक नुमाइंदे विद्वेष फैलाने वाली बातें करते रहते हैं। याद रखिये, इस देश के तिरंगे रंग के झंडे को एक रंगा करने का प्रयत्न करने वाला हर संगठन और हर व्यक्ति राष्ट्र द्रोही है। दो सम्प्रदायों, दो धर्मों मेंनफ़रत फैलाकर सत्ता हासिल करने की कोशिश करने वाले हमारे अज़ीम मुल्क के दुश्मन हैं। सच्चे हिन्दुस्तानियों को देश और समाज हित में इनके विरुध्द सीना तान करा खड़ा होना ही होगा।

सत्ता के मद् में चूर इन छद्म राष्ट्रवादियों और छद्म हिन्दुत्वादियों को कौन समझाये कि जब इनके आक़ाओं ने अपने संगठन को सांस्कृतिक संगठन बता कर आज़ादी की जंग से पल्ला झाड़ लिया था और अंग्रेज़ों की चाटुकारिता कर रहे थे । तब देश की आज़ादी के संघर्ष मेंहर क़ौम का सक्रिय योगदान था। उनके आज के सिरफिरे अनुयायी, कभी गौ-मांस रखने के शक में हत्या, कभी इसे लाने के शक में महिलाओं और मरी गायो की खाल उतारने वाले दलितों की पुलिस की मौजूदगी में सरे आम पिटाई। क्या साबित करना चाहते हैं, यह छदमराष्ट्रवादी और छदम हिन्दुत्ववादी रणबाँकुरे?

सवाल उठता है कि क्या 21वीं शताब्दी का यही संदेश है?

नहीं, मैं उधम सिंह, भगत सिंह, अशफाकुल्लाह जैसे शहीदों को आदरपूर्वक याद करते हुए कहना चाहूंगा कि उम्मीद बनाए रखिए, अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो, पर वह उजाले को बेदखल नहीं कर सकता। नफरतों के अँधेरे दौर में उम्मीद के साथ मोहब्बत की शमाजलाए रखिये।

जीत – सर्व धर्म –समभाव, गंगा जमुनी तहजीब  और धर्म निरपेक्षता की ही होगी।

यही राम मोहम्मद सिंह आज़ाद (अमर शहीद उधम सिंह) को हार्दिक भावभीनी श्रृध्दान्जली है।

सैयद शहनशाह हैदर आब्दी

समाजवादी चिन्तक –झांसी ।

 

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