झाँसी-अंग्रेज़ी कैलंडर वर्ष हो या अन्य दूसरे पंथों के वार्षिक कैलंडर की बात,
सभी का प्रारम्भ विश्व में हर्षोल्लास से होता है, लेकिन इसे “इस्लाम धर्म” की बदक़िस्मती कहा जाएगा कि इस्लामी वर्ष हिजरी संवत का प्रथम मास “मोहर्रम” अपने आगमन के साथ झूठ, मक्कारी, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, दुष्ट विचारधारा, अत्याचार, क्रूरता, अन्याय और अधर्म के विरूध्द संघर्ष और सर्वश्रेष्ठ बलिदान के दर्दनाक हादसे के साथ शोकाकुल वातावरण में
प्रारम्भ होता है।
इस्लामी नये साल के आगमन पर “मुबारक बाद” देने का औचित्य?
हमारी जानकारी के अनुसार “हिजरी” शब्द “हिजरत” से उत्पन्न हुआ है। रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलेही वसल्लम को इतना परेशान किया गया कि वो अपना वतन छोड़ने को बाध्य हो गये और उन्होंने मक्का शहर से मदीना शहर में हिज़रत की थी। इसके बाद से इस्लामी वर्ष की गणना “हिजरी” से की जानी जाने लगी।
रसूले ख़ुदा का परेशान होकर शहर छोड़ना “मुबारकबाद और बधाई” देने का अवसर कब से हो गया? क्योंकि ना तो रसूले ख़ुदा, ना ख़ुलाफा-ए-राशेदीन, ना मुसलमानों के चारों मोहतरम इमामों और न ही अन्य किसी औलिया-ए-इस्लाम और अकाबीरीनेमिल्ल्त से डा0 ऐ0पी0जे0 अबुल कलाम और जनाब हामिद अंसारी तक किसी विद्वान के इस्लामी नये साल के आगमन पर “मुबारक बाद” देने का कहीं तज़किरा नहीं मिलता है।
कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीक़ा अपनाना
चाहिए। जबकि आज ज़्यादातर आमजन दुनियावी उलझनों में इतना उलझ गया कि दीन की सही जानकारी न के बराबर हासिल कर पाया है।
अल्लाह और रसूले ख़ुदा वाले
तरीक़ों से लोग वाकिफ ही नहीं हैं। यही वजह है कि इस्लामी नये साल के आगमन पर “मुबारक बाद” देने की नई परम्परा पिछ्ले कुछ वर्षों में प्रारम्भ की
गई है। यह अंग्रज़ों की नक़ल के सिवा कुछ नहीं।
किसी की शहादत और परेशानी पर जश्न मनाना और बधाई का आदान प्रदान करना इंसानियत के विरुध्द भी है। ऐसे में जरूरत है हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर ग़ौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की। क्योंकि जिबरील-ए-अमीन फरिश्ते ने इमाम हुसैन की शहादत की सूचना जब रसूले ख़ुदा कि दी तो वो भी रोये थे।
अब आप ख़ुद ही सोचें कि किसी की नक़ल कर इस्लामी नये साल की मुबारकबाद देना कहां तक उचित है?